भारत में बौद्ध धर्म का क्षय…दामोदर धर्मानंद कोसांबी द्वारा लिखित किताब ‘भारत में बौद्ध धर्म की क्षय’, 2007


भारत में बौद्ध धर्म का क्षय…दामोदर धर्मानंद कोसांबी द्वारा लिखित किताब ‘भारत में बौद्ध धर्म की क्षय’, 2007buddha india land of buddha
      चीनी यात्री ह्वेन सांग (630 ईसा पश्चात) ने अपनी भारत यात्रा के दौरान जब देखा कि, भारत की इस भूमि में बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ क्षत-विक्षत स्थिति में दबी पड़ी हुई हैं तो उसने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि, उस महान शिक्षक द्वारा स्थापितधर्म तथा उनकी शिक्षाएँ शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगी। बंगाल के शासक शशांक ने बौद्ध प्रतिमाओं को ध्वस्त कर दिया था। यहाँ तक कि उस पवित्र बोधिवृक्ष को काटकर जला दिया था, जिसके नीचे बैठकर बुद्ध को 12 सदियाँ पहले ज्ञान प्राप्त हुआ था।
     

बाद में सम्राट अशोक के अंतिम वंशज पूमावर्मन ने उस बोधिवृक्ष की एक टहनीका पता लगाया और उसे लगाकर पल्लवित और पोषित किया। इसी प्रकार सम्राट हर्ष ने बंगाल के शासक शशांक को पराजित करके बौद्ध धर्म से संबंधित नष्ट हुए प्रतिष्ठानों का पुनरूद्धार किया तथा कई नए मठों और विहारों का निर्माण किया। हजारों बौद्धभिक्षु इन्हीं मठों में रहा और पढ़ा करते थे। उच्चस्तरीय शिक्षा प्रदान करने वाला समृद्ध नालंदाविश्वविद्यालय अपनी प्रतिष्ठा के चरम पर था। सब ठीक लगता था।
      क्षति अन्दरूनी कारणों से हुई। धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के पतन की शुरुआत होने लगी।चीनी यात्री  ह्वेन सांग की रिपोर्ट की बातें सच साबित होने लगी। हालांकि स्वयं ह्वेन सांग को भी इस बात का भान नहीं होगा कि उसकी भविष्यवाणी इतनी जल्दी सच होगी,जब उन्होंने लिखा था-
     

“इस काल में, ऐसे बौद्ध विद्वान जो बौद्ध धर्म की पावन रचनाओं की तीन शिक्षाओं की व्याख्या कर सकते थे, उनकी सेवाओं के लिए विभिन्न प्रकार के सेवकों को नियुक्त किया जाता था। उसे हाथी वाहन दिया जाता था। जो छह शिक्षाओं की व्याख्या करता था उसे सशस्त्र रक्षक दल दिया जाता था। जो सभासद परिमार्जित भाषा में अपनेविचार (तर्क-वितर्क) प्रस्तुत करता था, सघन अध्येयता होता था तथा अपने विषय मेंमाहिर होता था एवं तार्किक होता था, उसे बहुमूल्य आभूषणों से सजे हाथी में बिठाया जाता था। उसके लिए मठों के द्वार सदा खुले रहते थे। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपने तर्कों में असफल हो जाता था, तुच्छ और अश्लील मुहावरों का प्रयोग करता था या तार्किक नियमों की अवहेलना करता था तो उसके चेहरे पर लाल तथा सफेद रंग पोत दिया जाता था और उसके शरीर पर धूल तथा मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था। या उसे रेतीली जगह पर गहरे खंदक में छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार योग्य और अयोग्य,बुद्धिमान तथा मूर्ख की पहचान की जाती थी।” यह किस हालत के लक्षण थे?
     

बुद्ध के समय में योग्यता निर्धारण की यह प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती थी। हमेशा भ्रमण करने वाले बौद्ध भिक्षुओं का कार्य सरल शब्दों में तथा आम भाषा में धर्मपरायणता(सदाचार-संयम) का प्रसार करना था। समृद्ध मठ उन साधारण ग्रामीणों की चिंता नहीं करते थे जिनके श्रम के उत्पादों पर ही इन मठाधीशों की ऐय्याशी चलती थी, और आडंबरी शास्त्रार्थ होते थे।
      बुद्ध द्वारा संचालित नियमों, संयमों और उनके अनुपालन को ध्यान में रखते हुए बौद्ध भिक्षुओं को साधारण वेश-भूषा में रहने की अनुमति थी। उन्हें सोने और चांदी केआभूषणों को छूने तक की मनाही थी। जबकि, बाद में अजंता की बुद्ध मूर्तियों के सिर पर आभूषण दिखाए गए हैं, या उन्हें बहुमूल्य आसन पर बैठा दिखाया गया है!
     

बौद्ध धर्म के विचारों से प्रभावित होकर ही सम्राट अशोक ने रक्त-पात का रास्ताछोड़ दिया था और वह शांति-प्रिय हो गया था। उसने फरमान निकाल दिया था कि आगेसेना का उपयोग सिर्फ समारोह और परेड के दौरान ही किया जाएगा। धर्मपरायण सम्राटहर्ष ने बौद्धवाद के साथ किसी तरह अपनी युद्धनीतियों के समाधान की व्यवस्था की थी। उसी तरह वह बाद में भगवान सूर्य और महेश्वर, दोनों का आराधक हो गया था। हर्ष की सेना में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। उसकी सेना में 60 हजार हाथी, 1 लाख घुड़सवार तथा बड़ी संख्या में पैदल सेना थी। वह बौद्ध था, यहाँ तक कि उसकी खुद की हत्या करने आयाहत्यारा पकड़ा गया, और दरबारी लोग एकत्र होकर उसके लिए मृत्युदंड की सजा की माँग रहे थे, तो सम्राट हर्ष उसे छोड़ देने के हिमायती थे। जबकि आम जनता जो युद्धों में जान देने के लिए मजबूर थी और चाहती थी कि लड़ाइयां कम लड़ी जाएँ, ताकि जन-धन की क्षति न हो हर्षवर्धन का इनसे कोई वास्ता नहीं था।
     

दूसरे शब्दों में, बौद्धवाद बहुत खर्चीला साबित हुआ। असंख्य मठ और उनमें रहने वाले ऐय्याशों पर, और सैनिकों पर, दोहरी लागत आने लगी। अपने प्रारंभ काल से ही बौद्धवाद एक सार्वभौमिक राजतंत्र के विकास का हिमायती था जो छोटे-मोटे युद्धों को रोकता था। स्वयं बुद्ध चक्रवर्ती थे, वे राजा के अध्यात्मिक प्रतिरूप थे। किंतु ऐसी महान विभूतियों ने जिन साम्राज्यों को चलाया वे बहुत महँगी व्यवस्थाएँ साबित हुई। भारत में हर्ष इस प्रकार के अंतिम सम्राट थे। इसके बाद छोटे-छोटे टुकड़ों में राज्यों का विभाजन हो गया। यह प्रक्रिया नीचे से उपजी सामंतवादी व्यवस्था के उदय तक चलती रही। धीरे-धीरे प्रशासन सामंती तंत्र के हाथों में चला गया। इस व्यवस्था का जन्म, भूमि पर संपत्ति के नए उपजे अधिकारों को लेकर हुआ।
    

  गाँवों ने साम्राज्यों और उनसे जुड़े संगठित धर्म को खंडित कर दिया। अब अपने मेंपरिपूर्ण गाँव उत्पादन तंत्र के मानक बन गए। करों की वसूली मुद्रा के बजाय वस्तुओं में होने लगी क्योंकि खपत भी स्थानीय थी। दूरगामी व्यापार की गुंजाइश कम थी। इसलिए आपसी टकराहट भी नहीं होती थी।
     

मध्यकालीन भारतीय परिस्थितियों में खाद्य और कच्ची सामग्री को दूरस्थ स्थानों में पहुँचाने के लिए परिवहन की व्यवस्था नहीं थी। सम्राट हर्ष ने अपने पूरे साम्राज्य का भ्रमण किया था, उसके दरबारी और सैनिक भ्रमण में साथ होते थे। चीनी तीर्थ यात्री ने लिखा है कि भारतीय लोग व्यापार में सिक्कों का उपयोग नहीं करते थे। इस काल में वस्तु विनिमय की प्रथा थी। प्रमाण के तौर पर देखा जा सकता है कि हर्ष काल के कोई सिक्के उपलब्ध नहीं हैं। इसके विपरीत मौर्य कालीन पंचमार्का वाले सिक्कों की भरमार पाई जाती है।
   

   प्रारंभ में बौद्धधर्म बहुत सफल रहा, क्योंकि तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में यह सफल रहा। ईसा पूर्व छठी शदी के गांगेय क्षेत्र का समाज अपने में परिपूर्ण शांतिमय गाँवों के रूप में संगठित नहीं था। आबादी बहुत कम थी। किंतु वह भी आपस में लड़ते हुए अर्ध जनजातीय प्रदेशों में बंटी हुई थी। कई जनजातियां ऐसी थी जो हल जोतकर कृषि उत्पादन काम नहीं करती थी। वैदिक ब्राह्मणवाद चरागाही संस्कृति वाले आस पास के पड़ोसी कबीलों के साथ लगातार युद्ध में लगे कबीलों के लिए उपयुक्त था। उभरती कृषि अर्थव्यवस्था के विकास में पशुबलि की प्रथा बाधक हो गई थी। मौर्यपूर्व व्यवस्था में धातु, नमक और कपड़े का व्यापार लंबी दूरी तक अपेक्षित था किंतु सक्षम राज्य के संरक्षण के बिना ऐसा संभव नहीं था। अतः आदिवासी समूहों और सार्वभौमिक साम्राज्य के बीच की दूरी को तय करने के लिए एक नए सामाजिक दर्शन की आवश्यकता थी।
     

सार्वभौमिक राजतंत्र और सार्वभौमिक समाजिक धर्म समानांतर थे, यह इस बात सेसाबित हो जाता है कि उसी समय मगध का उदय हुआ। न केवल बौद्धधर्म बल्कि मगध राज्य के कई समकालीन मत- चाहे वे जैन हों, आजीविक हों, सभी वैदिक यज्ञों और पशुबलि का विरोध कर रहे थे। बौद्धधर्म वन्य देश और जंगली आदिवासियों के क्षेत्रों मेंबढ़ते व्यापार को संरक्षण दे रहा था। प्राचीन व्यापार मार्गों जूनार, कार्ला, नासिक, अजंता के स्मारक और अवशेष इस बात को प्रमाणित करते हैं।
    

  बौद्धधर्म का सभ्यता-निर्माण का काम ईसा की सातवीं सदी तक खत्म हो गया था।अहिंसा का सिद्धान्त सार्वभौमिक रूप से स्वीकार तो कर लिया गया था किंतु व्यवहार मेंउसका पालन नहीं हो रहा था। वैदिक पशु बलिप्रथा समाप्त हो गई थी। कुछ छोटे-छोटे राज्य इसके अपवाद थे किंतु इन पुनर्जागरणवादी प्रयासों का सामान्य अर्थव्यवस्था पर बहुतकम प्रभाव पड़ रहा था।
     

अब नई समस्या थी गाँवों के किसानों पर अत्यधिक ताकत न इस्तेमाल करते हुए उनको दब्बू बनाए रखने की। इस शिक्षा का काम धर्म ने संभाल लिया। लेकिन बौद्धधर्म ने नहीं। अब गाँवों में वर्ग संरचना जाति के रूप में उजागर होने लगी, और बौद्धधर्म हमेशाजाति से नफरत करता था।
      आदिवासी नई उपजातियों में शामिल

कर लिए गए। आदिवासी और कृषकवर्ग कर्मकांडों के जंजाल में फंसने लगा, जिसे बौद्ध भिक्षुओं ने निषिद्ध कर दिया था। कर्मकांडों पर ब्राह्मणों का एकछत्र अधिपत्य स्थापित हो गया।
     

इस समय ब्राह्मण पथप्रदर्शक के रूप में सामने आया, और उत्पादन के लिए प्रेरक की भूमिका निभाने लगा। क्योंकि खेतों की जुताई, बीज बोने, तथा फसल उगाने का मुहूर्त कब होगा, आदि इन सबके समय तय करने का पंचाग उनके पास रहता था। पंडित नई फसल और व्यापार की संभावनाओं की विधि बताने लगे। ब्राह्मण उत्पादन पर बोझ नहीं बनता था जैसा कि उसके वैदिक पूर्वज या बौद्धमठों द्वारा किया जाता था। इस काल में बुद्ध को विष्णु का ही अवतार मानकर समझौता किया गया। इसलिए औपचारिक बौद्ध धर्म धीरे-धीरे लुप्त होने लगा।

किंतु बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण शिक्षा का ह्रास नहीं होना चाहिए- अच्छे विचारों के लिए हर व्यक्ति को अपने दिलो-दिमाग के पोषण और प्रशिक्षण की जरूरत होती है, जैसे अच्छे गायन के लिए गले का रियाज और अच्छी दस्तकारी के लिए हाथों का अभ्यास जरूरी है। लेकिन विचारों का मूल्य और महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि उनसे कितनी सामाजिक प्रगति हो पाती है।
 
भारत ज्ञान विज्ञान समिति से प्रकाशित एवं धर्मानंद दामोदर कोसांबी के पुत्र दामोदर धर्मानंद कोसांबी द्वारा लिखित किताब ‘भारत में बौद्ध धर्म की क्षय’, 2007
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