Do you know what 24 spokes of Ashoka chakra or Buddhism religious symbol means:
It means Buddhism PATICCA SAMUPPADA theory
धर्मचक्र का प्रतीक अशोक चक्र ………
सम्राट अशोक के बहुत से शिलालेखों पर प्रायः एक चक्र (पहिया) बना हुआ है ।
इसे अशोक चक्र कहते हैं।
यह चक्र धर्मचक्र का प्रतीक है । उदाहरण के लिये सारनाथ स्थित सिंह-चतुर्मुख (लॉयन कपिटल) एवं अशोक स्तम्भ पर अशोक चक्र विद्यमान है। भारत के राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र को स्थान दिया गया है।
अशोक चक्र में चौबीस तीलियाँ (स्पोक्स्) हैं जो दिन के चौबीस घंटो का प्रतीक है।
अशोक चक्र, सम्राट अशोक के बाद अस्तित्व में आया था।
चक्र का अर्थ संस्कृत में पहिया होता है।
किसी बार-बार दुहराने वाली प्रक्रिया को भी चक्र कहते हैं।
चक्र स्वत: परिवर्तित होते रहने वाले समय का प्रतीक है।
12 spokes for Origination
12 for termination
cycle of LIFE i.e. birth and death
PATICCA SAMUPPADA Part 1 – YouTube.flv
1st part is http://www.youtube.com/watch?v=htHOWPLXhQ0
PATICCA SAMUPPADA Parts 2 3 – YouTube.flv
http://www.youtube.com/watch?v=hWNejKExQtE
प्रतीत्यसमुत्पाद : प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है।प्राणियों के लिये, इसका अर्थ है कर्म और विपाक(कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र होता है|कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है,हर घटना मूलतः शुन्य होती है।
‘प्रतीत्य समुत्पाद’ अथवा ‘पतीच्च समुप्पाद’ बौद्ध दर्शन से लिया गया शब्द है . इसका शाब्दिक अर्थ है – एक ही मूल से जन्मी दो अवियोज्य/इनसेपरेबल चीज़ें – यानी एक को चुनने के बाद आप दूसरी को न चुनने के लिए स्वतंत्र नहीं रह जाते . यानी एक को चुनने की अनिवार्य परिणति है दूसरी को चुनना .
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है । प्राणियों के लिये इसका अर्थ है – कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र । क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्म (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है । हर घटना मूलतः शून्य होती है । परंतु, मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को, जो दुःख का कारण है, त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर, निर्वाण पा सकते है
प्रतीत्यसमुत्पाद सारे बुद्ध विचारों की रीढ़ है। बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि में इसी के अनुलोम-प्रतिलोम अवगाहन से बुद्ध ने बुद्धत्व का अधिगत किया। प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान ही बोधि है। यही प्रज्ञाभूमि है। अनेक गुणों के विद्यमान होते हुए भी आचार्यों ने बड़ी श्रद्धा और भक्तिभाव से ऐसे भगवान बुद्ध का स्तवन किया है, जिन्होंने अनुपम और अनुत्तर प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना की है। चार आर्यसत्य, अनित्यता, दु:खता, अनात्मता क्षणभङ्गवाद, अनात्मवाद, अनीश्वरवाद आदि बौद्धों के प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धान्त इसी प्रतीत्यसमुत्पाद के प्रतिफलन हैं।
वेदना (सुख, दुःख, की भावना) के कारण तृष्णा (पाने की तीव्र इच्छा) उत्पन्न होती है , तृष्णा के कारण पर्येषण (=खोजना), पर्येषण के कारण लाभ, लाभ के कारण विनिश्चय (=दृढ़-विचार), विनिश्चय के कारण छंद-राग (=प्रयत्न्न की इच्छा), छंद-राग के कारण अध्यवसान (प्रयत्न्न); अध्यवसान के कारण परिग्रह (=जमा करना), परिग्रह के कारण मात्सर्य (=कंजूसी), मात्सर्य के कारण आरक्षा (=हिफाजत), आरक्षा के कारण ही दंड-ग्रहण, शास्त्र ग्रहण, विग्रह, विवाद, ‘तू’ ‘तू’ मैं-मैं (=तुवं, तुवं), चुगली, झूठ बोलना, अनेक पाप=बुराईयाँ (=अ=कुशल-धर्म) (धर्म=मन का विचार) होती हैं।
नाम-रूप (संज्ञा-भौतिक अकार, विचार-अकार, विचार-पदार्थ, विचार-शरीर, विचार-आकृति) के कारण विज्ञान (चित, मन) है. विज्ञान के कारण नाम-रूप है। नाम-रूप के कारण स्पर्श है (आँखों से देखना, जिव्हा से चखना, नाक से सूंघना, कानों से सुनना भी ‘स्पर्श’ है क्योंकि ऐसे पदार्थ जैसे प्रकाश, ध्वनि तरंगों आदि का स्पर्श इन्द्रियों को होता है)। स्पर्श के कारण वेदना है। वेदना के कारण तृष्णा है। तृष्णा के कारण उपादान (आसक्ति, अनुराग, बंधन, व्यसन, एक तरह से तीव्र तृष्णा से चिपके रहना; उपादान (आसक्ति) चार प्रकार के हैं : 1. कामुपदान = एन्द्रिय, विषय, इन्द्रिय सम्बन्धी उपादान/आसक्ति/बंधन/तीव्र इच्छा/तृष्णा, 2. दित्थुपादान = वैचारिक उपादान, 3. शीलबातुपादान = नियम/विधि और अनुष्ठान/संस्कार में उपादान/आसक्ति, अट्टा-वादुपादान = व्यक्तित्व श्रद्धा / नायक-महिमा) में उपादान/आसक्ति/बंधन) है। उपादान के कारण भव (होना) है। भव के कारण जन्म (=जाति) है। जन्म के कारण जरा-मरण है। जरा-मरण के कारण शोक, परिवेदना (=रोना पीटना), दुःख, दौर्मनस्य (=मनःसंताप) उपायास (=परेशानी) होते हैं। इस प्रकार इस केवल (=सम्पूर्ण) -दुःख-पुंज (रूपी लोक) का समुदाय (= उत्पत्ति) होता है।
नोट : इस लेख को अपने नोट में संभाल कर रखें और प्रिंट निकालें। यह आपको दुनिया की किसी भी पुस्तक में नहीं मिलेगा। भगवान बुद्ध के इस सिद्धांत ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ को इतनी सरलता से समझाया आपको कहीं नहीं मिलेगा। यही समस्त आधुनिक विज्ञान है, यही सृष्टि की उत्पत्ति और जीव विकास के उद्भव का सिद्धांत है जो कि चार्ल्स डार्विन के जीव विकास के सिद्धांत को स्पष्ट करता और समझता है।
लेखक: निखिल सबलानिया। स्रोत: दीघ निकाय (अनुवादक : भिखु/भिक्षु राहुल सांकृत्यायन और भिक्षु जगदीश काश्यप) (दीघ निकाय भगवान बुद्ध के धम्म-उपदेशों के संग्रहों में से एक है जो 2550 वर्ष पुराना है।) और Buddhist Dictionary by Venerable Bhante Nyanatiloka.
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