मानववादी प्रश्नोत्तरी – I -महामना रामस्वरूप वर्मा
प्रश्न- मानववाद क्या है ?
उत्तर-मानववाद वह विचारधारा है जो मानव मात्र के लिए समता, सुख और समृद्धि का मार्ग निरूपण करती है.
प्रश्न- मानव समता से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- बोलने, चलने, उठने, बैठने, खान और पान में जो कोई जैसे व्यवहार दूसरों से अपने लिए चाहता है वैसा ही वह दूसरो के साथ खुद करे यही छ: मानव समताये हैं.
प्रश्न- ये छ: मानव समतायें क्यों आवश्यक हैं ?
उत्तर- हर मानव – मान सम्मान चाहता है और सम्मान एक मानव को दूसरे मानव से ही मिलता है. बोलने आदि की उक्त छ: क्रियाओ में कौन किसका सम्मान करता है, इसका पता चलता है. अत: हर मानव दूसरे मानव को सम्मान दे तभी हर मानव की सम्मान की भूख शांत होगी और मानव मन सुखी होगा. इसलिए सभी मानवों को मन का सुख देने के लिए उक्त छ: समतायें आवश्यक हैं.
प्रश्न- मानव तन की आवश्यकतायें क्या हैं?
उत्तर- शुद्ध हवा (प्राण वायु), शुद्ध पानी, पौष्टिक भोजन और अचोट- ये चार मानवतन की आवश्यकतायें हैं. इनके बिना तन ठीक नही रहकर नष्ट हो जायेगा.
प्रश्न- तन और मन क्या दोनों पदार्थ है ? यदि है तो कैसे ?
उत्तर- हर पदार्थ माप्य है अत: उसे रूपवान कहते है और हर पदार्थ गतिमान है अत: उसकी गतिमानता को गति कहते है. पदार्थ में ही गति होती है. बिना पदार्थ के गति संभव नहीं. जैसे जब तक तन ठीक है, मन है, तन ध्वस्त तो मन ध्वस्त.
प्रश्न- पदार्थ जड़ होता है या चैतन्य ?
उत्तर- सम्पूर्ण पदार्थ गतिशील होने के कारण चैतन्य है, कोई भी परमाणु गतिहीन नही अत: सम्पूर्ण पदार्थ चैतन्य हुआ.
प्रश्न- यदि सम्पूर्ण पदार्थ चैतन्य है तो लोग जड़ पदार्थ और चैतन्य पदार्थ का भेद क्यों करते हैं ?
उत्तर- पदार्थ के जड़ चैतन्य के भेद करना उचित नही है, क्योंकि गतिशील होने के कारण सम्पूर्ण पदार्थ चैतन्य ही है, पदार्थ का कोई रूप जड़ नही. वास्तव में पदार्थ के दो भेद हैं- एक जीव दूसरा अजीव.
प्रश्न- सृष्टि रचना व विनाश का कारण क्या है ?
उत्तर- पदार्थ का संघात – व्याघात का स्वभाव.
प्रश्न- जीव किसे कहते हैं ?
उत्तर- पदार्थ का वह रूप जो अपने अंदर उर्जा का उत्पादन, उत्पादित उर्जा के प्रयोग से आवश्यक अणुओं का उत्पादन और अपना प्रजनन कर सके, जीव है.
प्रश्न- क्या मानव भी एक जीव है?
उत्तर- हाँ.
प्रश्न – सहज बुद्धि और विवेक बुद्धि का अंतर सोदाहरण स्पष्ट करेँ ?
उत्तर- मानव के अतिरिक्त सभी चलने या रेंगने वाले प्राणी, जो उड़ नहीं सकते, गहरे पानी को आवश्यकता पड़ने पर तैर कर पर कर सकते हैं. यह तैरने का हुनर उन्हें सहज बुद्धि से प्राप्त है. मनुष्य को सोच विचार करने पर तैरना आता है यानी जब वो सोचता है कि पानी में उसके खड़े होने से पानी का वजन कम और उसका वजन ज्यादा होगा जिससे वह डूब जायेगा. इसलिए चित या पट लेटने पर ज्यादा पानी घेरने के कारण पानी का वजन अधिक और उसका कम होगा जिससे पानी में उतराने लगेगा. हाथ से पानी काटने पर गति आती है. यही तैरना कहा जाता है. मनुष्य इसे सहज रूप से नही कर सकता वरन सोचने समझने के बाद ही वह तैरने का कला सीख पाता है. सही और अच्छा क्या है और गलत और बुरा क्या है, मन की इस सोचने समझने की शक्ति का नाम विवेक बुद्धि है.
प्रश्न- आप के उदाहरण से स्पष्ट है कि मानव जानवर से बदतर है ?
उत्तर- जब विवेक बुद्धि का प्रयोग करता है तब तो जानवर से श्रेष्ठ होता है किन्तु जब उसका प्रयोग नही करता तब जानवर से बदतर होता है. किसी भी अवस्था में मनुष्य जानवर के समान नहीं होता क्योंकि यह विवेक बुद्धि का प्राणी है और सारे जीव सहज बुद्धि के प्राणी हैं.
प्रश्न – मानव की रक्षा और उन्नति के लिए सबसे आवश्यक क्या होता है ?
उत्तर- विवेक बुद्धि का इस हेतु प्रयोग.
प्रश्न- क्या मन से बुद्धि भिन्न होता है ?
उत्तर-मन की विभिन्न अवस्थाओं का नाम विभिन्न बुद्धियाँ है. विवेकबुद्धि , दुर्बुद्धि, पाप बुद्धि, चेतना आदि सब मन की विभिन्न अवस्थायें हैं. जैसे कि एक ही व्यक्ति वैज्ञानिक, चित्रकार, भारवाहक आदि होता है.
प्रश्न- सृष्टि और प्रलय क्या होता है ?
उत्तर- पदार्थ की गतिशीलता के कारण जब अन्तरिक्ष में पदार्थ फैलने लगता है तो सृष्टि होती है और पदार्थ के गुरुत्वाकर्षण के कारण जब अन्तरिक्ष में पदार्थ सिकुड़ने लगता है तो प्रलय होती है.
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Ramswaroop Verma
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Ramswaroop Verma, was in Uttar Pradesh, India. He was the founder of Arjak Sangh, a humanist organisation. The organization emphasizes social equality and is strongly opposed to Brahminism. Verma denied the existence of god and soul. Wikipedia
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Born: August 22, 1923, Uttar Pradesh
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जयचन्द
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जयचन्द कन्नौज साम्राज्य के राजा थे। वो गहरवार राजवंश से थे जिसे अब राठौड़ राजवंश के नाम से जाना जाता है।[1] जयचन्द्र (जयचन्द), महाराज विजयचन्द्र के पुत्र थे। ये कन्नौज के राजा थे। जयचन्द का राज्याभिषेक वि॰सं॰ १२२६ आषाढ शुक्ल ६ (ई.स. ११७० जून) को हुआ। राजा जयचन्द पराक्रमी शासक था। उसकी विशाल सैन्य वाहिनी सदैव विचरण करती रहती थी, इसलिए उसे ‘दळ-पंगुळ’ भी कहा जाता है। इसका गुणगान पृथ्वीराज रासो में भी हुआ है। राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्ध-कोश में कहा है कि काशीराज जयचन्द्र विजेता था और गंगा-यमुना दोआब तो उसका विशेष रूप से अधिकृत प्रदेश था। नयनचन्द्र ने रम्भामंजरी में जयचन्द को यवनों का नाश करने वाला कहा है। युद्धप्रिय होने के कारण इन्होंने अपनी सैन्य शक्ति ऐसी बढ़ाई की वह अद्वितीय हो गई, जिससे जयचन्द को दळ पंगुळ’ की उपाधि से जाना जाने लगा। जब ये युवराज थे तब ही अपने पराक्रम से कालिंजर के चन्देल राजा मदन वर्मा को परास्त किया। राजा बनने के बाद अनेकों विजय प्राप्त की। जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो (रासो)। यवनेश्वर सहाबुद्दीन गौरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में पछाड़ा (विद्यापति-पुरुष परीक्षा)। रम्भामञ्जरी में भी कहा गया है कि जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। उत्तर भारत में उसका विशाल राज्य था। उसने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपनी राज्य सीमा को उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक बढ़ाया था। पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य को छूती थी। तराईन के युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहाण को परास्त कर दिया था। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था। यहाँ का शासन प्रबन्ध गौरी ने अपने मुख्य सेनापति ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराईन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना। ऐबक गौरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा। इस युद्ध के दो वर्ष बाद गौरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया। इस बार उसका कन्नौज जीतने का इरादा था। कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था। गौरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाके को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया। वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किए भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी। तराईन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हजार सेना के साथ आ मिला। मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गया। दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर नामक स्थान पर मुकाबला हुआ। युद्ध में राजा जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगा। इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी सी सेना थी। दुर्भाग्य से जयचन्द के एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया, युद्ध में गौरी की विजय हुई। यह युद्ध वि॰सं॰ १२५० (ई.स. ११९४) को हुआ था। जयचन्द पर देशद्रोही का आरोप लगाया जाता है। कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए गौरी को भारत बुलाया और उसे सैनिक संहायता भी दी। वस्तुत: ये आरोप निराधार हैं। ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी। गौरी को बुलाने वाले देश द्रोही तो दूसरे ही थे, जिनके नाम पृथ्वीराज रासो में अंकित हैं। संयोगिता प्रकरण में पृथ्वीराज के मुख्य-मुख्य सामन्त काम आ गए थे। इन लोगों ने गुप्त रूप से गौरी को समाचार दिया कि पृथ्वीराज के प्रमुख सामन्त अब नहीं रहे, यही मौका है। तब भी गौरी को विश्वास नहीं हुआ, उसने अपने दूत फकीरों के भेष में दिल्ली भेजे। ये लोग इन्हीं लोगों के पास गुप्त रूप से रहे थे। इन्होंने जाकर गौरी को सूचना दी, तब जाकर गौरी ने पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। गौरी को भेद देने वाले थे नित्यानन्द खत्री, प्रतापसिंह जैन, माधोभट्ट तथा धर्मायन कायस्थ जो तेंवरों के कवि (बंदीजन) और अधिकारी थे (पृथ्वीराज रासो-उदयपुर संस्करण)। समकालीन इतिहास में कही भी जयचन्द के बारे में उल्लेख नहीं है कि उसने गौरी की सहायता की हो। यह सब आधुनिक इतिहास में कपोल कल्पित बातें हैं। जयचन्द का पृथ्वीराज से कोई वैमनस्य नहीं था। संयोगिता प्रकरण से जरूर वह थोड़ा कुपित हुआ था। उस समय पृथ्वीराज, जयचन्द की कृपा से ही बचा था। संयोगिता हरण के समय जयचन्द ने अपनी सेना को आज्ञा दी थी कि इनको घेर लिया जाए। लगातार पाँच दिन तक पृथ्वीराज को दबाते रहे। पृथ्वीराज के प्रमुखप्रमुख सामन्त युद्ध में काम आ गए थे। पाँचवे दिन सेना ने घेरा और कड़ा कर दिया। जयचन्द आगे बढ़ा वह देखता है कि पृथ्वीराज के पीछे घोड़े पर संयोगिता बैठी है। उसने विचार किया कि संयोगिता ने पृथ्वीराज का वरण किया है। अगर मैं इसे मार देता हूँ तो बड़ा अनर्थ होगा, बेटी विधवा हो जाएगी। उसने सेना को घेरा तोड़ने का आदेश दिया, तब कहीं जाकर पृथ्वीराज दिल्ली पहुँचा। फिर जयचन्द ने अपने पुरोहित दिल्ली भेजे, जहाँ विधि-विधान से पृथ्वीराज और संयोगिता का विवाह सम्पन्न हुआ। पृथ्वीराज और गौरी के युद्ध में जयचन्द तटस्थ रहा था। इस युद्ध में पृथ्वीराज ने उससे सहायता भी नहीं माँगी थी। पहले युद्ध में भी सहायता नहीं माँगी थी। अगर पृथ्वीराज सहायता माँगता तो जयचन्द सहायता जरूर कर सकता था। अगर जयचन्द और गौरी में मित्रता होती तो बाद में गौरी जयचन्द पर आक्रमण क्यों करता ? अतः यह आरोप मिथ्या है। पृथ्वीराज रासो में यह बात कहीं नहीं कही गई कि जयचन्द ने गौरी को बुलाया था। इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था। यह एक सुनी-सुनाई बात है जो एक रूढी बन गई है।