बुद्ध के धर्म में प्रार्थना के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि बुद्ध के धर्म में परमात्मा के लिए ही कोई जगह नहीं है। प्रार्थना किससे करोगे? बुद्ध कहते हैं : परमात्मा बाहर नहीं है।परमात्मा भीतर है। और परमात्मा कहना भी उसे, ठीक नहीं है। क्यों कहना ठीक नहीं है? क्योंकि परमात्मा शब्द से ही ऐसा भाव होता है कि दुनिया को बनाने वाला, चलाने वाला।…OSHO


buddha oshoआप कहते हैं कि बौद्ध धर्म में प्रार्थना के लिए जगह नहीं है। लेकिन बौद्ध मंदिरों में उनके अनुयायी प्रणति और प्रार्थना में झुकते पाए जाते हैं। यह कैसे?

बुद्ध को किसने सुना?

जो लोग सुनना चाहते थे, सुन लिया। जो कहा गया था, वह नहीं सुना गया।

बुद्ध के धर्म में प्रार्थना के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि बुद्ध के धर्म में परमात्मा के लिए ही कोई जगह नहीं है। प्रार्थना किससे करोगे? बुद्ध कहते हैं : परमात्मा बाहर नहीं है। अगर बाहर हो, तो प्रार्थना हो सकती है—हाथ जोड़ो; नमस्कार करो, मांग करो, स्तुति करो; महिमा का गीत गाओ।

लेकिन परमात्मा बाहर नहीं है। परमात्मा भीतर है। और परमात्मा कहना भी उसे, ठीक नहीं है। क्यों कहना ठीक नहीं है? क्योंकि परमात्मा शब्द से ही ऐसा भाव होता है कि दुनिया को बनाने वाला, चलाने वाला।

बुद्ध के विचार में न कोई चलाने वाला है, न कोई बनाने वाला है। दुनिया अपने से चल रही है। धर्म है, परमात्मा नहीं है। नियम है, नियंता नहीं है। इसलिए प्रार्थना किससे करो!

और प्रार्थना का मतलब ही क्या हो गया है? लोगों की प्रार्थना क्या है? खुशामद है।

इस देश में इतनी रिश्वत चलती है, इतनी खुशामद चलती है, उसका कारण यही है कि इस देश में पुरानी आदत प्रार्थना की पड़ी है। इस देश से रिश्वत मिटाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि लोग भगवान को रिश्वत देते रहे हैं! चले! उन्होंने कहा कि चलो, हनुमान जी! अगर मेरा दुश्मन मर जाए, तो एक नारियल चढ़ा देंगे!

यह क्या है? रिश्वत है। और खूब सस्ते में निपटा रहे हो! एक सड़ा नारियल खरीद लाओ, क्योंकि हनुमानजी के मंदिर में चढ़ाने के लिए कोई अच्छा नारियल तो खरीदता नहीं।

अलग दुकानें होती हैं तीर्थ—स्थानों में, जहां कि चढ़ाने के लिए नारियल बिकते हैं। अलग ही दुकानें होती हैं, जहां सड़े—सडाए नारियल बिकते हैं। और ऐसे नारियल बिकते हैं, जो हजार दफे चढ़ चुके हैं और फिर लौट आते हैं। इधर तुम चढ़ाकर आए कि पुजारी उन्हें दुकानों पर बेच जाता है सुबह आकर। फिर चढ़ जाते हैं, फिर चढ जाते हैं! हनुमानजी भी थक गए होंगे उन्हीं नारियलों से।

एक नारियल चढ़ाकर तुम मुकदमा जीतना चाहते हो! पत्नी की बीमारी दूर करना चाहते हो! चुनाव जीतना चाहते हो! आम आदमी की तो बात छोड़ो, तुम्हारे जो तथाकथित नेता हैं, उनकी भी मंदबुद्धिता की कोई सीमा नहीं है! वे भी चुनाव लड़ते हैं, तो हनुमानजी के मंदिर के सहारे लड़ते हैं। कोई ज्योतिषी। हर आदमी के ज्योतिषी हैं दिल्ली में। हर नेता का ज्योतिषी है। वह पहले ज्योतिषी को पूछता है कि जीतेंगे, कि नहीं! फिर किसी गुरु का आशीर्वाद लेने जाता है। मेरे पास तक लोग आ जाते हैं! कि आशीर्वाद दीजिए।

एक राजनेता आए। मैंने उनसे पूछा : पहले यह बताओ कि किसलिए? क्योंकि राजनेताओं से मैं डरता हूं। डरता इसलिए हूं कि तुम्हारे इरादे कुछ खराब हों! पहले यह तो पक्का हो जाए कि तुम किसलिए आशीर्वाद चाहते हो। उन्होंने कहा अब आपको तो सब पता ही है! चुनाव में खड़ा हो रहा हूं।

मैंने कहा : अगर मैं आशीर्वाद दूं तो यही दूंगा कि तुम हार जाओ। इसमें तुम्हारा भी हित होगा और देश का भी हित होगा।

वे तो बहुत घबड़ा गए कि आप क्या कह रहे हैं! ऐसा वचन न बोलिए! संत पुरुषों को ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए।

मैंने कहा और कोन बोलेगा!

उन्होंने कहा. मैं तो जहां जाता हूं सभी जगह आशीर्वाद पाता हूं।

मैंने कहा तुम्हें जो आशीर्वाद देते होंगे, वे तुम जैसे ही लोग होंगे। तुम्हें उनसे आशा है कि कुछ मिल जाएगा; उनको तुमसे आशा है कि उनको तुमसे कुछ मिल जाएगा। वे तुमको ही आशीर्वाद नहीं दिए हैं। तुम्हारे विपरीत जो खड़ा है, उसको भी आशीर्वाद दिए हैं। कोई भी जीत जाए।

तुम भगवान को रिश्वत देते रहे हो। तुम्हारी प्रार्थना एक तरह की रिश्वत और खुशामद है—कि मैं पतित और तुम पतितपावन। तुम अपने को छोटा करके दिखाते हो, हालाकि तुम जानते हो कि यह मामला ठीक नहीं है। हम और छोटे? मगर कहना पड़ता है। शिष्टाचारवश भगवान के सामने तुम कहते हो कि तुम महान, मैं क्षुद्र। हालाकि तुम जानते हो कि महान असली में कोन है!

मगर आदमी को तो जरूरत पड़ जाए, तो गधे से बाप कहना पड़ता है। तो यह तो परमात्मा है, अब इनसे तो जरूरत पड़ी है, तो कहना ही पड़ेगा। हालांकि बगल की नजर से तुम देखते रहते हो कि अगर नहीं हो पाया, तो समझ लेना। अगर मेरी बात पूरी न हुई, तो फिर कभी प्रार्थना न करूंगा।

बुद्ध ने कहा. न कोई परमात्मा है..। बुद्ध तुम्हारी रिश्वत की धारणा को तोड़ देना चाहते थे। बुद्ध चाहते थे कि तुम जागो। तुम अपने को बदलो। तुम किसी का सहारा मत खोजो। वहा कोन है सहारा देने वाला! तुम्हारी बनायी हुई मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर लिया है। तुम्हीं ने बनायीं, तुम्हीं ने रख लीं, तुम्हीं उनके सामने झुके हो। खूब खेल चल रहा है! आदमी की धोखे की भी कोई सीमा नहीं है!

बुद्ध ने कहा. कोई परमात्मा नहीं है।

इसका मतलब यह नहीं कि परमात्मा नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि अगर परमात्मा है, तो तुम्हारे चैतन्य में छिपा है। वह तुम्हारे चैतन्य की सुवास है। अपने चैतन्य को निखारो और परमात्मा प्रगट होगा। प्रार्थना से नहीं, ध्यान से प्रगट होगा।

प्रार्थना में दूसरा है। ध्यान में कोई दूसरा नहीं है, तुम अपने भीतर उतरते हो। अपने को निखारते, साफ करते, पोंछते। धीरे— धीरे जब विचार झड़ जाते हैं, वासनाएं गिर जाती हैं, तब तुम्हारे भीतर वह ज्योतिर्मय, वह चिन्मय प्रगट होता है।

तुम्हारे इस मृण्मय रूप में चिन्मय छिपा है—यह बुद्ध ने कहा।

प्रार्थना से नहीं होगा, ध्यान से होगा।

लेकिन, जैसा मैंने तुमसे पहले कहा, सुनता कोन है बुद्ध की! लोग बुद्ध की ही प्रार्थना करने लगे! लोगों ने बुद्ध के ही मंदिर बना लिए। और लोगों ने कहा : चलो, कोई परमात्मा नहीं है, चलेगा। आप ही परमात्मा हैं। हम आपके ही चरणों में झुकते हैं। आपकी ही प्रार्थना करेंगे!

बुद्ध ने घोषणा की थी, परमात्मा नहीं है, ताकि तुम समझ जाओ कि तुम भी परमात्मा हो।

नीत्शे का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है कि जब तक ईश्वर है, तब तक आदमी स्वतंत्र न हो सकेगा। इसलिए नीत्शे ने कहा ईश्वर मर गया है।

इससे आदमी स्वतंत्र हुआ, ऐसा नहीं लगता है। सिर्फ विक्षिप्त हुआ है। नीत्शे खुद पागल होकर मरा।

बुद्ध ने भी यही कहा कि कोई ईश्वर नहीं है। क्योंकि बुद्ध भी समझते हैं कि जब तक ईश्वर है, तुम स्वतंत्र न हो सकोगे। लेकिन बुद्ध पागल नहीं हुए; स्वयं परमात्मा हो गए। कैसे यह क्रांति घटी!

बुद्ध ने कहा. कोई ईश्वर नहीं है, क्योंकि तुम ईश्वर हो। प्रार्थना किसकी करते हो? जिसकी प्रार्थना करते हो, वह तुम्हारे भीतर बैठा है। बुद्ध ने तुम्हें महिमा दी। बुद्ध ने मनुष्य को परम महिमा दी।

बुद्ध की धारणा को चंडीदास ने अपने एक वचन में प्रगट किया है साबार ऊपर मानुष सत्य, ताहार ऊपर नाहीं। सबसे ऊपर मनुष्य का सत्य है और उसके ऊपर और कोई सत्य नहीं है।

बुद्ध मनुष्य—जाति के सबसे बड़े मुक्तिदाता थे। सबसे मुक्ति दिला दी।

लेकिन आदमी गुलाम है; आदमी मुक्ति चाहता नहीं। तुम उसे किसी तरह जंजीरों से निकाल लो, वह फिर जंजीरें बांध लेता है। तुम किसी तरह उसे धक्के देकर कारागृह के बाहर करो, वह दूसरे दरवाजे से भीतर घुस जाता है। आदमी को गुलामी में सुरक्षा मालूम पड़ती है!

इसलिए बुद्ध ने तो कहा था कि अब प्रार्थना न हो, ध्यान हो। लेकिन लोगों ने बुद्ध की ही प्रार्थना करनी शुरू कर दी। बुद्ध के मंदिर बने, मूर्तियां बनीं। प्रार्थना चली। लोग बुद्ध की प्रार्थना तो करने लगे, लेकिन बुद्ध के मूल—तत्व से चूक गए।

प्रत्येक द्रष्टा की अपनी प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया में तुमने जरा भी कुछ जोड़ा—घटाया कि खराब हो जाती है। और हम जोड़ते —घटाते हैं। हम अपने मन को बीच में ले आते हैं। हम अपनी वासनाओं को बीच में ले आते हैं। हम रंग डालते हैं चीजों को; हम अपना रंग दे देते हैं।

बुद्ध के धर्म में प्रार्थना की तो कोई जगह नहीं है, लेकिन झुकने की जगह है। इसको खयाल में रखना। और तब बड़ा कठिन हो जाता है बुद्ध को समझना। क्योंकि बुद्ध ने इतनी ऊंची उड़ान ली है कि समझना बहुत कठिन हो जाता है।

बुद्ध कहते हैं : प्रार्थना की तो कोई जरूरत नहीं है, लेकिन झुकने का भाव कीमती है। किसी के सामने मत झुकना, झुक ही जाना। झुकना किसी के सामने गलत है। लेकिन झुकना अपने आप में सही है। क्योंकि जो झुकता है, समर्पित होता है। जो झुकता है, वह मिटता है। जो झुकता है, उसका अहंकार खोता है।

अब यह बड़ा कठिन है। तुम्हें यह समझ में आता है कि अगर शतइr हो, परमात्मा हो, तो झुका जा सकता है। कोई झुकने को तो चाहिए! बुद्ध कहते हैं : झुकने को कोई नहीं चाहिए। झुकना शुद्ध होना चाहिए। क्योंकि अगर तुम किसी के सामने झुकोगे, तो किसी वासना से झुकोगे। तुम अगर किसी के सामने झुकोगे, तो तुम्हारे झुकने में कोई हेतु रहेगा। यह कोई असली झुकना नहीं होगा।

जब तुम बिना किसी वासना के झुकोगे; सिर्फ झुक जाओगे; झुकने का मजा लोगे; न कोई मांग है, न कोई मांग को पूरी करने वाला है। तुम एक वृक्ष के पास झुके पड़े हो। या जमीन पर सिर रखे पड़े हो; तुम मिट रहे हो, गल रहे हो, तुम विसर्जित हो रहे हो। जो पूरी तरह झुक गया, वह पूरी तरह उठ गया। और जो अकड़ा खड़ा रहा, वह चूकता चला गया है।

ध्यान रखना : पहाड़ खड़े हैं अकड़े हुए, इसलिए पानी से खाली रह जाते हैं। वर्षा तो उन पर होती है, लेकिन खाली रह जाते हैं। और झीलें, जो खाली हैं, झुकी हैं; गड्डे हैं; सिर उठाए नहीं खड़े हैं—उनमें जल भर जाता है।

परमात्मा तो रोज बरस रहा है। सारा जगत चैतन्य से भरा है। तुम्हीं चैतन्य से भरे नहीं हो; सभी कुछ चैतन्य से भरा है। चेतना का ही सारा जाल है। चेतना प्रतिपल बरस रही है, लेकिन तुम अकड़े खड़े हो। अकड़े खड़े हो, इसलिए खाली रह जाते हो। झुको।

बुद्ध से किसी ने पूछा है…..। क्योंकि बुद्ध ने कहा : किसी के सामने नहीं झुकना है। कोई पहुंच गया होगा तार्किक व्यक्ति। उसने देखा कि बुद्ध कहते हैं : किसी के सामने नहीं झुकना; और लोग बुद्ध के सामने ही झुक रहे हैं! और लोग कह रहे हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघ शरणं गच्छामि। धम्म शरणं गच्छामि। बुद्ध की शरण आता हूं; संघ की शरण आता हूं; धर्म की शरण आता हूं।

किसी तार्किक ने देखा होगा कि यह क्या हो रहा है! और बुद्ध कहते हैं : किसी के सामने झुकना मत। तो उसने पूछा कि यह आप कैसे स्वीकार कर रहे हैं! लोग आपके सामने झुक रहे हैं!

बुद्ध ने कहा कि नहीं; मेरे सामने कोई नहीं झुक रहा है। लोग झुक रहे हैं। अभी लोग इतने कुशल नहीं हो पाए हैं, इसलिए मेरा सहारा लेकर झुक रहे हैं। मगर मेरे सामने नहीं झुक रहे हैं।

जैसे छोटे बच्चे को हम पढ़ाते हैं, तो कहते हैं, ग गणेश का। पुराने जमाने में कहते थे। अब कहते हैं : ग गधा का। उसको गधा या गणेश से जोड़ना पड़ता है ग को, नहीं तो बच्चे को ग समझ में नहीं आता। हा, गणेशजी की मूर्ति दिख जाती है, तो वह समझ जाता है कि ठीक, ग गणेश का।

फिर जिंदगीभर थोड़े ही ग गणेश का! फिर जब भी ग आए तभी पढ़ना पड़े ग गणेश का, तो फिर पढ़ना ही मुश्किल हो जाए। फिर तो ग गणेश का, और आ आम का, और इसी तरह अगर पढ़ाई करनी पड़े, तो पढ़ाई क्या हो पाएगी! फिर तो एक लाइन भी पढ़ नहीं पाओगे। इतनी चीजें आ जाएंगी कि भटक ही जाओगे। पंक्ति का तो अर्थ खो जाएगा।

फिर धीरे— धीरे गणेशजी छूट जाते हैं, गधाजी भी छूट जाते हैं। फिर ग ही शुद्ध रह जाता है।

तो बुद्ध ने कहा. जैसे छोटे बच्चे को चित्र का सहारा लेकर समझाते हैं, ऐसे ये अभी छोटे बच्चे हैं। मैं तो सिर्फ ग गणेश का। जल्दी ही ये प्रौढ़’ हो जाएंगे, फिर मेरी जरूरत न होगी। फिर मेरे बिना सहारे के झुक जाएंगे।

जैसे मां बच्चे को चलाती है हाथ पकड़कर। फिर जब बच्चा चलने लगता है, हाथ अलग कर लेती है। ऐसे सदगुरु चलाता है। फिर जब बड़ा हो जाता है, प्रौढ़ हो जाता है व्यक्ति, हाथ अलग कर लेता है।

फिर इस बुद्ध के वचनों में ये जो तीन शरण हैं—त्रिरत्‍न—ये भी समझने जैसे हैं। पहला है : बुद्धं शरणं गच्छामि। बुद्ध एक व्यक्ति हैं। फिर दूसरा है : संघ शरणं गच्छामि। वह बुद्ध से बड़ा हो गया मामला। दूसरा चरण आगे का है। बुद्ध के ही नहीं, जितने बुद्ध हुए हैं, उन सबके संघ की शरण जाता हूं। एक बुद्ध से इशारा लिया, सहारा लिया। एक बुद्ध को पहचाना। एक बुद्ध से संबंध जोड़ा। फिर आगे चले। जैसे घाट से उतरे, तो सीढियों पर चले। फिर सीढ़ियों से उतरे, तो नदी में गए।

बुद्धं शरणं गच्छामि। जिससे पहचान बनी, जिससे नाता जोड़ा, जिससे शिष्यत्व का संबंध बना—उसकी शरण गए। फिर जल्दी ही खयाल में आना शुरू हुआ कि बुद्ध ही थोड़े बुद्ध हैं; कृष्ण भी बुद्ध हैं; महावीर भी बुद्ध हैं; पतंजलि भी बुद्ध हैं; लाओत्सु भी बुद्ध हैं। फिर और सारे बुद्ध दिखायी पड़ने लगे। एक फूल से क्या पहचान हुई, फिर सारे फूलों से पहचान होने लगी। एक नदी का क्या जल पीया, फिर सारे नदियों के जल की समझ आने लगी कि यही जल है। सभी जगह गंगाजल है। तो दूसरी शरण है—संघं शरणं गच्छामि।

और तीसरी शरण और बड़ी हो गयी। फिर जब सब बुद्धों को देखा, सब फूलों को देखा, तो उन फूलों के भीतर अनस्थूत धागा दिखायी पड़ने लगा—कि इतने बुद्ध हुए ये सब कैसे बुद्ध हुए? ये किस कारण बुद्ध हुए? धर्म के कारण। फिर बुद्ध भी गए; बुद्धों का संघ भी गया; फिर धम्म शरणं गच्छामि—फिर धर्म की शरण आए। और एक दिन वह भी चला जाएगा। फिर सिर्फ झुकना रह जाएगा, शुद्ध झुकना।

सीढियां उतरे; बुद्ध सीढ़ियों जैसे। फिर नदी में गए; नदी बुद्धों के संघ जैसी। फिर नदी में बहे और सागर में पहुंचे; सागर धर्म जैसा। फिर सागर में गले और एक हो गए। फिर झुकना शुद्ध हो गया। फिर असली शरण हाथ लगी। फिर तुम धन्यवाद करोगे—बुद्धों का, धर्म का, बुद्ध का; अनुग्रह मानोगे। अब झुकना शुद्ध हो गया। अब तुमने जान लिया कि मेरे न होने में ही मेरे होने का असली राज है। मेरी शून्यता में ही मेरी पूर्णता है

आज इतना ही।

ओशो- { एस धम्‍मो सनंतनो (भाग–11) प्रवचन–112; प्रश्न-पांचवां}

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  1. Thanks  Regards-Babu Lal RaoSub-Divisional Engineer (Retd), Bharat Sanchar Nigam Ltd.Vill-Jamunipur, PS-Ataria, Distt-Sitapur, UPMob : 9415335868

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