बुद्धा जयंती पर विशेष लेख:- गौतम बुद्ध और उनके धम्म को समझने का सबसे जरूरी लेख , इसको पढ़े बिना आप बुद्ध धम्म का मर्म नहीं समझ सकते चाहे कितनी ही किताबे पढ़ लो , बुद्ध धम्म की रेडीमेड मैगी है ये “बुद्ध मेरी दृस्टि में ओशो “

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ओशो ने सभी धर्मों पर बहुत अध्ययन किया गहन और विस्तार से व्याख्यान दिए हैं, धर्मों को खंगालते खंगालते वो बौद्ध धम्म तक पहुंचे और फिर बौद्ध धम्म पर ठहर गए|बौद्ध धम्म किताबों में बंद है आम जनता को उसको समझने के लिए किसी जीवित टीचर या गुरु की जरूरत है जो जनता को उनके स्तर तक आकर समझा सके|इस जरूरत को ओशो के धम्म पर रिकॉर्डिंग बहुत कमाल की है, उसी में से एक रिकॉर्डिंग पर आधारित है ये लेख|

हमने यूट्यूब पर वो वीडियो भी डाले थे पर भारत में धम्म को न पनपने देने के लिए बहुत बड़ा षडियंत्र चलता है| आपको जानकार हैरानी होगी की बाकि के धर्मों के व्याख्यान यूट्यूब पर हो तो कोई आपत्ति नहीं पर अगर बौद्ध धम्म पर उनका कोई व्याख्यान यूट्यूब पर डाल दे तो तुरंत कॉपीराइट का हवाला देकर उसे हटवा देते हैं|और सबसे बही बात अगर कॉपी राइट है तो खुद अपने नाम से ही डालो वो भी नहीं डालते| बौद्ध धम्म पर उनके भाषणों का लेख और ऑडियो वीडियो अगर कहीं मिले तो उसे तुरंत डाउनलोड कर के रख ले, पता नहीं षडियंत्र करी कब उसे ऑफ लाइन करवा दे|

dhyan do buddh parबुद्ध कहते हैं,

“तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो मानना या न मानना बाद की बात है। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यह तुम्हारी ही अंतर्मन का भवन है।”

पहली, गौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं, द्रष्टा हैं।:   

दार्शनिक वह, जो सोचे। द्रष्टा वह, जो देखे। सोचने से दृष्टि नहीं मिलती। सोचना अज्ञात का हो भी नहीं सकता। जो ज्ञात नहीं है, उसे हम सोचेंगे भी कैसे? सोचना तो ज्ञात के भीतर ही परिभ्रमण है। सोचना तो ज्ञात की ही धूल में ही लोटना है। सत्य अज्ञात है। ऐसे ही अज्ञात है जैसे अंधे को प्रकाश अज्ञात है। अंधा लाख सोचे, लाख सिर मारे, तो भी प्रकाश के संबंध में सोचकर क्या जान पाएगा! आंख की चिकित्सा होनी चाहिए। आंख खुली होनी चाहिए। अंधा जब तक द्रष्टा न बनें, तब तक सार हाथ नहीं लगेगा।

तो पहली बात बुद्ध के संबंध में स्मरण रखना, उनका जोर द्रष्टा बनने पर है। वे स्वयं द्रष्टा हैं। और वे नहीं चाहते कि लोग दर्शन के ऊहापोह में उलझें।
दार्शनिक ऊहापोह के कारण ही करोड़ों लोग दृष्टि को उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। प्रकाश की मुफ्त धारणाएं मिल जाएं, तो आंख का महंगा इलाज कौन करे! सस्ते में सिद्धान्त मिल जाएं, तो सत्य को कौन खोजे! मुफ्त, उधार सब उपलब्ध हो, तो आंख की चिकित्सा की पीड़ा से कौन गुजरे! और चिकित्सा कठिन है। और चिकित्सा में पीड़ा भी है।बुद्ध ने बार-बार कहा है कि मैं चिकित्सक हूं। उनके सूत्रों को समझने में इसे याद रखना। बुद्ध किसी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं कर रहे हैं।

वे किसी दर्शन का सूत्रपात नहीं कर रहे हैं। वे केवल उन लोगों को बुला रहे हैं जो अंधे हैं और जिनके भीतर प्रकाश को देखने की प्यास है। और जब लोग बुद्ध के पास गए, तो बुद्ध ने उन्हें कुछ शब्द पकड़ाए, बुद्ध ने उन्हें ध्यान की तरफ इंगित और इशारा किया। क्योंकि ध्यान से है खुलती आंख, ध्यान से खुलती है भीतर की आंख।विचारों से तो पर्त की पर्त तुम इकट्ठी कर लो, आंख खुली भी हो तो बंद हो जाएगी। विचारों के बोझ से आदमी की दृष्टि खो जाती है। जितने विचार के पक्षपात गहन हो जाते हैं, उतना ही देखना असंभव हो जाता है। फिर तुम वही देखने लगते हो जो तुम्हारी दृष्टियां होती है। फिर तुम वह नहीं देखते, जो है। जो है, उसे देखना हो तो सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरूरी है।इस विरोधाभास को खयाल में लेना, दृष्टि पाने के लिए सब दृष्टियांे से मुक्त हो जाना जरूरी है। जिसकी कोई भी दृष्टि नहीं, जिसका कोई दर्शनशास्त्र नहीं, वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।

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=> दूसरी बात, गौतम बुद्ध पारंपरिक नही, मौलिक हैं।: 

गौतम बुद्ध किसी परंपरा, किसी लीक को नहीं पीटते हैं। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि अतीत के ऋषियों ने ऐसा कहा था, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि वेद में ऐसा लिखा है, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि मैं कहता हूं, इसलिए मान लो। वे कहते हैं, जब तक तुम न जान लो, मानना मत। उधार श्रद्धा दो कौड़ी की है। विश्वास मत करना, खोजना। अपने जीवन को खोज में लगाना, मानने में जरा भी शक्ति व्यय मत करना। अन्यथा मानने में ही फांसी लग जाएगी। मान-मानकार ही लोग भटक गए हैं।

तो बुद्ध न तो परंपरा की दुहाई देते, न वेद की। न वे कहते हैं कि हम जो कहते हैं, वह ठीक होना ही चाहिए। वे इतना ही कहते हैं, ऐसा मैंने देखा। इसे मानने की जरूरत नहीं है। इसको अगर परिकल्पना की तरह ही स्वीकार कर लो, तो काफी है।परिकल्पना का अर्थ होता है, हाइपोथीसिस। जैसे कि मैंने कहा कि भीतर आओ, भवन में दीया जल रहा है। तो मैं तुमसे कहता हूं कि यह मानने की जरूरत नहीं है कि भवन में दीया जल रहा है। इसको विश्वास करने की जरूरत नहीं। इस पर किसी तरह की श्रद्धा लाने की जरूरत नहीं है। तुम मेरे साथ आओ और दीए को जलता देख लो। दीया जल रहा है तो तुम मानो या न मानो, दीया जल रहा है। और दीया जल रहा है तो तुम मानते हुए आओ कि न मानते हुए आओ, दीया जलता ही रहेगा। तुम्हारे न मानने से दीया बुझेगा नहीं, तुम्हारे मानने से जलेगा नहीं।

इसलिए बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यही तुम्हारी ही अंतरात्मा का भवन है। तुम भीतर आओ और दीए को जलता देख लो। देख लो, फिर मानना।
और खयाल रहे जब देख ही लिया तो मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। हम जो देख लेते हैं, उसे थोड़े ही मानते हैं। हम तो जो नहीं देखते, उसी को मानते हैं। तुम पत्थर-पहाड़ को तो नहीं मानते, परमात्मा को मानते हो। तुम सूरज-चांद-तारों को तो नहीं मानते, वे तो हैं। तुम स्वर्गलोक, मोक्ष, नर्क को मानते हो। जो नहीं दिखाई पड़ता, उसको हम मानते हैं। जो दिखायी पड़ता है, उसको तो मानने की जरूरत ही नहीं रह जाती है, उसका यथार्थ तो प्रगट है।
तो बुद्ध कहते हैं, मेरी बात पर भरोसा लाने की जरूरत नहीं, इतना ही काफी है कि तुम मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लो। इतना पर्याप्त है। इसको वैज्ञानिक कहते हैं, हाइपोथीसिस, परिकल्पना। एक वैज्ञानिक कहता है, सौ डिग्री तक पानी गर्म करने से पानी भाप बन जाता है। मानने की कोई जरूरत नहीं, चूल्हा तुम्हारे घर में है, जल उपलब्ध है, आग उपलब्ध है, चढ़ा दो चूल्हे पर जल को, परीक्षण कर लो। परीक्षण करने के लिए जो बात मानी गयी है, वह परिकल्पना। अभी स्वीकार नहीं कर ली है कि यह सत्य है, लेकिन एक आदमी कहता है, शायद सत्य हो, शायद असत्य हो, प्रयोग करके देख लें, प्रयोग ही सिद्ध करेगा-सत्य है या नहीं?
तो बुद्ध पारंपरिक नहीं हैं, मौलिक हैं। विचार की परंपरा होती है, दृष्टि की मौलिकता होती है। विचार अतीत के होते हैं, दृष्टि वर्तमान में होती है। विचार दूसरों के होते हैं, दृष्टि अपनी होती है।

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=> तीसरी बात, गौतम बुद्ध शास्त्रीय नहीं हैं। पंडित नहीं हैं, वैज्ञानिक हैं। :

बुद्ध ने धर्म को पहली दफे वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दी। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे विज्ञान के सिंहासन पर विराजमान किया। इसके पहले तक धर्म अंधविश्वास था। बुद्ध ने उसे बड़ी गरिमा दी। बुद्ध ने कहा, अंधविश्वास की जरूरत ही नहीं है। धर्म तो जीवन का परम सत्य है। एस धम्मो सनंतनो। यह धर्म तो शाश्वत और सनातन है। तुम जब आंख खोलोगे तब इसे देख लोगे।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा कि नरक के भय के कारण मानो, और यह भी नहीं कहा कि स्वर्ग के लोभ के कारण मानो। और इसलिए यह भी नहीं कहा कि परमात्मा सताएगा अगर न माना, और परमात्मा पुरस्कार देगा अगर माना। नही, ये सब व्यर्थ की बातें बुद्ध ने नहीं कहीं।
बुद्ध ने तो सारसूत्र कहा। बुद्ध ने तो कहा, यह धर्म तुम्हारा स्वभाव है। यह तुम्हारे भीतर बह रहा है, अहर्निश बह रहा है। इसे खोजने के लिए आकाश में आंखें उठाने की जरूरत नहीं है, इसे खोजने के लिए भीतर जरा सी तलाश करने की जरूरत है। यह तुम हो, तुम्हारी नियति है, यह तुम्हारा स्वभाव है। एक क्षण को भी तुमने इसे खोया नहीं, सिर्फ विस्मरण हुआ है।

तो बुद्ध ने चैतन्य की सीढ़ियां कैसे पार की जाएं, मूर्छा से कैसे आदमी अमूर्छा में जाए, बेहोशी कैसे टूटे और होश कैसे जगे, इसका विज्ञान थिर किया। और जो उनके साथ भीतर गए, उन्हें निरपवाद रूप से मान लेना पड़ा कि बुद्ध जो कहते हैं, ठीक कहते हैं।
यह अपूर्व क्रांति थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। बुद्ध मील के पत्थर हैं मनुष्य-जाति के इतिहास में। संत तो बहुत हुए, मील के पत्थर बहुत थोड़े लोग होते हैं। महावीर भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि महावीर ने जो कहा, वह तेईस तीर्थंकर पहले कह चुके थे। कृष्ण भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि कृष्ण ने जो कहा, वह उपनिषद और वेद सदा से कहते रहे थे। बुद्ध मील के पत्थर हैं, जैसे लाओत्सू मील का पत्थर है। कभी-कभार, करोड़ों लोगों में एकाध संत होता है, करोड़ों संतों में एकाध मील का पत्थर होता है। मील के पत्थर का अर्थ होता है, उसके बाद फिर मनुष्य-जाति वही नहीं रह जाती। सब बदल जाता है, सब रूपांतरित हो जाता है। एक नयी दृष्टि और एक नया आयाम और एक नया आकाश बुद्ध ने खोल दिया।

इस प्रवचन में ओशो भगवान बुद्ध की विशेषताओं पर प्रकाश डालते है,इस प्रवचन को सुनने के बाद यही प्रतीत होता है की , बुद्ध को अगर कोई ठीक से समझ पाया है तो वोह एक मात्र ओशो है|बुद्ध के साथ धर्म अंधविश्वास न रहा, अंतर्खोज बना। बुद्ध के साथ धर्म ने बड़ी छलांग लगा ली। आस्तिक को ही धर्म में जाने की सुविधा न रही, नास्तिक को भी सुविधा हो गयी। ईश्वर को नहीं मानते, कोई हर्ज नहीं, बुद्ध कहते ही नहीं कि मानना जरूरी है। कुछ भी नहीं मानते, बुद्ध कहते हैं, तो भी कोई चिंता की बात नहीं। कुछ मानने की जरूरत ही नहीं है। बिना कुछ माने अपने भीतर तो जा सकते हो। भीतर जाने के लिए मानने की आवश्यकता क्या है! न तो ईश्वर को मानना है, न आत्मा को मानना है, न स्वर्ग-नर्क को मानना है। इसे तो नास्तिक भी इनकार न कर सकेगा कि मेरा भीतर है। इसे तो नास्तिकों ने भी नहीं कहा है कि भीतर नहीं है। भीतर तो है ही। नास्तिक कहते हैं, यह भीतर शाश्वत नहीं है। बुद्ध कहते हैं, फिकर छोड़ो, पहले यह जितना है उसे जान लो, उसी जानने से अगर शाश्वत का दर्शन हो जाए तो फिर मानने की जरूरत न होगी; तुम मान ही लोगे।
बुद्ध ने नास्तिकों को धार्मिक बनाने का महत कार्य पूरा किया। इसलिए बुद्ध के पास जो लोग आकर्षित हुए, बड़े बुद्धिमान लोग थे। आमतौर से धार्मिक साधु-संतों के पास बुद्धिहीन लोग इकट्ठे होते हैं। जड़, मूर्छित, मुर्दा। बुद्ध ने मनुष्य-जाति की जो श्रेष्ठतम संभावनाएं हैं, उनको आकर्षित किया। बुद्ध के पास नवनीत इकट्ठा हुआ चैतन्य का। ऐसे लोग इकट्ठे हुए जो और किसी तरह तो धर्म को मान ही नहीं सकते थे, उनके पास प्रज्वलित तर्क था। इसलिए बुद्ध दार्शनिक हैं, लेकिन बुद्ध के पास इस देश के सबसे बड़े से बड़े दार्शनिक इकट्ठे हो गए। बुद्ध अकेले एक व्यक्ति के पीछे इतना दर्शनशास्त्र पैदा हुआ, जितना मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति के पीछे नहीं हुआ। और बुद्ध के पीछे इतने महत्वपूर्ण विचारक हुए कि जिनकी तुलना सारी पृथ्वी पर कहीं भी खोजनी मुश्किल है।
कैसे यह घटित हुआ? बुद्ध ने महानास्तिकों को आकर्षित किया। आस्तिक को बुला लेना मंदिर में तो कोई खास बात नहीं, नास्तिक को बुला लेने में कुछ खास बात है। बुद्ध वैज्ञानिक हैं, इसलिए नास्तिक भी उत्सुक हुआ। विज्ञान को तो नास्तिक ठुकरा न सकेगा। बुद्ध ने कहा, संदेह है, चलो, संदेह की ही सीढ़ी बनाएंगे। संदेह से और शुभ क्या हो सकता है! संदेह के पत्थर को लेंगेी बना लेंगेे। संदेह से ही तो खोज होती है। इसलिए संदेह को फेंको मत।
इस बात को समझना। जिसके पास जितनी विराट दृष्टि होती है, उतना ही वह हर चीज का उपयोग कर लेना चाहता है। सिर्फ क्षुद्र दृष्टि के लोग काटते हैं। क्षुद्र दृष्टि का आदमी कहेगा, संदेह नहीं चाहिए, श्रद्धा चाहिए। काटो संदेह को। लेकिन संदेह तुम्हारा जीवंत अंग है, काटोगे तो तुम अपंग हो जाओगे। संदेह का रूपांतरण होना चाहिए, खंडन नहीं। संदेह ही श्रद्धा बन जाए, ऐसी कोई प्रक्रिया होनी चाहिए।
कोई कहता है, काटो कामवासना को। लेकिन काटने से तो तुम अपंग हो जाओगे। कुछ ऐसा होना चाहिए कि कामवासना राम की वासना बन जाए। ऊर्जा का अधोगमन ऊर्ध्वगमन बन जाए। तुम ऊर्ध्वरेतस बन जाओ। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे कंकड़-पत्थर भी हीरों में रूपांतरित हो जाएं। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे जीवन की कीचड़ कमल बन सके।बुद्ध ने वह कीमिया दी।

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= > चौथी बात, गौतम बुद्ध वायवी, एब्सट्रेक्ट नहीं, अत्यंत व्यावहारिक हैं।

ऊंचे से ऊंची छलांग ली है उन्होंने, लेकिन पृथ्वी को कभी नहीं छोड़ा। जड़ें जमीन में जमाए रखीं। वह सिर्फ हवा में ही पंख नहीं मारते रहे।
एक बहुत प्राचीन कथा है कि ब्रह्मा ने जब सृष्टि बनायी और सब चीजें बनायीं, तभी उसने यथार्थ और स्वप्न भी बनाया। बनते ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ और स्वप्न का झगड़ा तो प्राचीन है। पहले दिन ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं; स्वप्न ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं, तुझमे रखा क्या है! झगड़ा यहां तक बढ़ गया कि कौन महत्वपूर्ण है दोनों में कि दोनों झगड़ते हुए ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा हंसे और उन्होंने कहा, ऐसा करो, सिद्ध हो जाएगा प्रयोग से। तुममें से जो भी जमीन पर पैर गड़ाए रहे और आकाश को छूने में समर्थ हो जाए, वही श्रेष्ठ है।
दोनों लग गये। स्वप्न ने तो तत्क्षण आकाश छू लिया, देर न लगी, लेकिन पैर उसके जमीन तक न पहुंच सके। टंग गया आकाश में। हाथ तो लग गए आकाश से, लेकिन पैर जमीन से न लगे-स्वप्न के पैर होते ही नहीं। यथार्थ जमीन में पैर गड़ाकर खड़ा हो गया, जैसे कि कोई वृक्ष हो, लेकिन ठूंठ की तरह, आकाश तक उसके हाथ न पहुंचे।
ब्रह्मा ने कहा, समझे कुछ? स्वप्न अकेला आकाश में अटक जाता है, यथार्थ अकेला जमीन पर भटक जाता है। कुछ ऐसा चाहिए कि स्वप्न और यथार्थ का मेल हो जाए।
तो बुद्ध वायवी नहीं हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंनें आकाश नहीं छुआ। उन्होंने आकाश छुआ, लेकिन यथार्थ के आधार पर छुआ।
इस फर्क को समझना।
बुद्ध ने अपने पैर तो जमीन पर रोके, बुद्ध ने यथार्थ को तो जरा भी नहीं भुलाया, यथार्थ में बुनियाद रखी; भवन उठा, मंदिर ऊंचा उठा, मंदिर पर स्वर्णकलश चढ़े। लेकिन मंदिर के स्वर्णकलश टिकते तो जमीन में छिपे हुए पत्थरों पर हैं, भूमि के भीतर छिपे हुए बुनियाद के पत्थरों पर टिकते हैं। बुद्ध ने एक मंदिर बनाया, जिसमें बुनियाद भी है और शिखर भी।
बहुत लोग हैं, जिनको हम नास्तिक कहते हैं, वे जमीन पर अटके रह जाते हैं। वे ठूंठ की तरह हैं। यथार्थ का ठूंठ। मार्क्सवादी हैं या चार्वाकवादी हैं, वे यथार्थ का ठूंठ। वे जमीन में तो पैर गड़ा लेते हैं, लेकिन उनके भीतर आकाश तक उठने की कोई अभीप्सा नहीं है, आकाश तक उठने की कोई क्षमता नहीं है। और चूंकि वे सपने को काट डालते हैं बिलकुल और कह देते हैं, आदर्श है ही नहीं जगत में। बस यही सब कुछ है, मिट्टी ही सब कुछ है। उनके जीवन में कमल नहीं फूलता, कमल नहीं उठता। कमल का उपाय ही नहीं रह जाता। जिसको इनकार कर दिया आग्रहपूर्वक, उसका जन्म नहीं होता।
और फिर दूसरी तरफ सिद्धांतवादी हैं: एब्सट्रेक्ट, वायवी विचारक है; वे आकाश में ही पर मारते रहते हैं, वे कभी जमीन पर पैर नहीं रोकते हैं। वे आदर्श में जीते हैं, यथार्थ से उनका कभी कोई मिलन ही नहीं होता। उनकी आंखों में आकाश-कुसुम खिलते हैं, असली कुसुम नहीं।
बुद्ध स्वप्नवादी नहीं हैं, परम व्यावहारिक हैं। लेकिन चार्वाक जैसे व्यवहारवादी भी नहीं हैं। उनका व्यवहारवाद अपने भीतर आदर्श की संभावना छिपाए हुए है। लेकिन वे कहते हैं, शुरू तो करना होगा जमीन पर पैर टेकने से। जिसके पैर जमीन में जितनी मजबूती से टिके हैं, वह उतनी ही आसानी से आकाश को छूने में समर्थ हो पाएगा। मगर यात्रा तो शुरू करनी पड़ेगी जमीन में पैर टेकने से।
इसलिए जब कोई बुद्ध के पास आता है और ईश्वर की बात पूछता है, वे कहते हैं, व्यर्थ की बातें मत पूछो। अनेकों को तो लगा कि बुद्ध अनीश्वरवादी हैं, इसलिए ईश्वर के बाबत जवाब नहीं देते। यह बात सच नहीं है। बुद्ध कहते हैं, पहले जमीन में तो पैर गड़ा लो, पहले ध्यान में तो उतरो, पहले अंतस चेतना में तो जड़ें फैला लो, पहले तुम जो हो उसको तो पहचान लो, फिर यह पीछे हो लेगा। यह अपने से हो लेगा। यह एक दिन अचानक हो जाता है। जब जमीन में वृक्ष की जड़े खूब मजबूती से रुक जाती हैं, तो वृक्ष अपने आप आकाश की तरफ उठने लगता है। एक दिन आकाश में उठे वृक्ष में फूल भी खिलते हैं, वसंत भी आता है। मगर वह अपने से होता है। असली बात जड़ की है।
तो बुद्ध बहुत गहरे में यथार्थवादी हैं, लेकिन उनका यथार्थ आदर्श को समाहित किए हुए है। वह आदर्श समन्वित है यथार्थ में।

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=>पांचवी बात, गौतम बुद्ध विधिवादी नहीं, मानवीय हैं।:

एक तो विधिवादी होता है, जैसे मनु। सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं, मनुष्य महत्वपूर्ण नहीं है। ऐसा लगता है मनु में, जैसे मनुष्य सिद्धांत के लिए बना है। मनुष्य की आहुति चढ़ायी जा सकती है सिद्धांत के लिए, लेकिन सिद्धांत में फेर-बदल नहीं की जा सकती।
बुद्ध अति मानवीय हैं, ह्ययूमनिस्ट। मानववादी हैं। वे कहते हैं, सिद्धांत का उपयोग है मनुष्य की सेवा में तत्पर हो जाना। सिद्धांत मनुष्य के लिए है, मनुष्य सिद्धांत के लिए नहीं। इसलिए बुद्ध के वक्तव्यों में बड़े विरोधाभास हैं। क्योंकि बुद्ध एक-एक व्यक्ति की मनुष्यता को इतना मूल्य देते, इतना चरम मूल्य देते हैं कि अगर उन्हें लगता है इस आदमी को इस सिद्धांत से ठीक नहीं पड़ेगा, तो वे सिद्धांत बदल देते हैं। अगर उन्हें लगता है कि थोड़े से सिद्धांत में फर्क करने से इस आदमी को लाभ होगा, तो उन्हें फर्क करने में जरा भी झिझक नहीं होती। लेकिन मौलिक रूप से ध्यान उनका व्यक्ति पर है, मनुष्य पर है। मनुष्य परम है। मनुष्य मापदंड है। सब चीजें मनुष्य पर कसी जानीं चाहिए।

इसलिए बुद्ध वर्ण-व्यवस्था को न मान सके। इसलिए बुद्ध आश्रम-व्यवस्था को भी न मान सके। क्योंकि ये जड़ सिद्धांत हैं। बुद्ध ने कहा, ब्राह्मण वही जो ब्रह्म को जाने। ब्राह्मण-घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। और शूद्र वही जो ब्रह्म न जाने। शूद्र-घर में पैदा होने से कोई शूद्र नहीं होता। तो अनेक ब्राह्मण शूद्र हो गए, बुद्ध के हिसाब से, और अनेक शूद्र बाह्मण हो गए। सब अस्तव्यस्त हो गया। मनु के पूरे शास्त्र को बुद्ध ने उखाड़ फेंका।
हिंदू अब तक भी बुद्ध से नाराजगी भूले नहीं हैं। वर्ण-व्यवस्था को इस बुरी तरह बुद्ध ने तोड़ा। यह कुछ आकस्मिक बात नहीं थी कि डाक्टर अंबेडकर ने ढाई हजार साल बाद फिर शूद्रों को बौद्ध होने को निमंत्रण दिया। इसके पीछे कारण है। अंबेडकर ने बहुत बातें सोची थीं। पहले उसने सोचा कि ईसाई हो जाएं, क्योंकि हिंदुओ ने तो सता डाला है, तो ईसाई हो जाएं। फिर सोचा कि मुसलमान हो जाएं। लेकिन यह कोई बात जमीं नही, क्योंकि मुसलमानों में भी वही उपद्रव है। वर्ण के नाम से न होगा तो शिया-सुन्नी का है।
अंततः अंबेडकर की दृष्टि बुद्ध पर पड़ी और तब बात जंच गयी अंबेडकर को कि शूद्र को सिवाय बुद्ध के साथ और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि शूद्र के लिए भी अपने सिद्धांत बदलने को अगर कोई आदमी राजी हो सकता है तो वह गौतम बुद्ध हैं-और कोई राजी नहीं हो सकता-जिसके जीवन में सिद्धांत का मूल्य ही नहीं, मनुष्य का चरम मूल्य है।
यह आकस्मिक नहीं है कि अंबेडकर बौद्ध हुए। पच्चीस सौ साल के बाद शूद्रों का फिर बौद्धत्व की तरफ जाना, या बौद्धत्व के मार्ग की तरफ जाना, बौद्ध होने की आकांक्षा, बड़ी सूचक है। इससे बुद्ध के संबंध में खबर मिलती है।
बुद्ध ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी और आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी। जवान, युवकों को संन्यास दे दिया। हिंदू नाराज हुए। संन्यस्त तो आदमी होता है आखिरी अवस्था में, मरने के करीब। अगर बचा रहा, पचहत्तर साल के बाद उसे संन्यस्त होना चाहिए। तो पहले तो पचहत्तर साल तक लोग बचते नहीं। अगर बच गए, तो पचहत्तर साल के बाद ऊर्जा नहीं बचती जीवन में। तो हिंदुओं का संन्यास एक तरह का मुर्दा संन्यास है, जो आखिरी घड़ी में कर लेना है। मगर इसका जीवन से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है।
बुद्ध ने युवकों को संन्यास दे दिया, बच्चों को संन्यास दे दिया और कहा कि यह बात मूल्यवान नहीं है, लकीर के फकीर होकर चलने से कुछ भी न चलेगा। अगर किसी व्यक्ति को युवावस्था में भी परमात्मा को खोजने की, सत्य को खोजने की, जीवन के यथार्थ को खोजने की प्रबल आकांक्षा जगी है, तो मनु महाराज का नियम मानकर रुकने की कोई जरूरत नहीं है। वह अपनी आकांक्षा को सुने, वह अपनी आकांक्षा से जाए। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंकाक्षा को सुने। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षा से जीए। उन्होंनें सब सिद्धांत एक अर्थ में गौण कर दिए, मनुष्य प्रमुख हो गया।
तो वे सैद्धांतिक नहीं हैं, विधिवादी नहीं हैं। लीगल नहीं है उनकी पकड़, उनकी पकड़ मानवीय है। कानून इतना मूल्यवान नहीं है, जितना मनुष्य मूल्यवान है। और हम कानून बनाते ही इसीलिए हैं कि मनुष्य के काम आए। मनुष्य कानून के काम आने के लिए नहीं है। इसलिए जब जरूरत हो, कानून बदला जा सकता है। जब मनुष्य के हित में हो, ठीक है, जब अहित में हो जाए तोड़ा जा सकता है। जो-जो मनुष्य के अहित में हो जाए, तोड़ देना है। कोई कानून शाश्वत नहीं है, सब कानून उपयोग के लिए हैं।

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=> और छठवीं बात, गौतम बुद्ध नियमवादी नहीं है, बोधवादी हैं।

अगर बुद्ध से पूछो, क्या अच्छा है, क्या बुरा है, तो बुद्ध उत्तर नहीं देते। बुद्ध यह नहीं कहते कि यह काम बुरा है और यह काम अच्छा है। बुद्ध कहते हैं, जो बोधपूर्वक किया जाए, वह अच्छा; जो बोधहीनता से किया जाए, बुरा।
इस फर्क को खयाल में लेना। बुद्ध यह नहीं कहते कि हर काम हर स्थिति में भला हो सकता है। या कोई काम हर स्थिति में बुरा हो सकता है। कभी कोई बात पुण्य हो सकती है, और कभी कोई बात पाप हो सकती है-वही बात पाप हो सकती है, भिन्न परिस्थति में वही बात पाप हो सकती है। इसलिए पाप और पुण्य कर्मो के ऊपर लगे हुए लेबिल नहीं हैं। अभी जो तुमने किया, पुण्य है; और सांझ को दोहराओ तो शायद पाप हो जाए। भिन्न परिस्थिति।
तो फिर हमारे पास शाश्वत आधार क्या होगा निर्णय का? बुद्ध ने एक नया आधार दिया। बुद्ध ने आधार दिया-बोध, जागरूकता। इसे खयाल में लेना। जो मनुष्य जागरूकतापूर्वक कर पाए, जो भी जागरूकता में ही किया जा सके, वही पुण्य है। और जो बात केवल मूर्छा में ही की जा सके, वही पाप है। जैसे, तुम पूछो, क्रोध पाप है या पुण्य? तो बुद्ध कहते हैं, अगर तुम क्रोध जागरूकतापूर्वक कर सको, तो पुण्य है। अगर क्रोध तुम मूर्छित होकर ही कर सको, तो पाप है।
अब फर्क समझना। इसका मतलब यह हुआ कि हर क्रोध पाप नहीं होता और हर क्रोध पुण्य नहीं होता। कभी मां जब अपने बेटे पर क्रोध करती है, तो जरूरी नहीं है कि पाप हो। शायद पुण्य भी हो, पुण्य हो सकता है। शायद बिना क्रोध के बेटा भटक जाता। लेकिन इतना ही बुद्ध का कहना है, होशपूर्वक किया जाए।
मैंने एक झेन कहानी सुनी है। एक समुराई, एक क्षत्रिय के गुरु को किसी ने मार दिया। और जापान में ऐसी व्यवस्था है, अगर किसी का गुरु मार डाला जाए, तो शिष्य का कर्तव्य है कि बदला ले। और जब तक वह मारने वाले को न मार दे, तब तक चैन न ले। ये समुराई तो बड़े भयानक योद्धा होते हैं। गुरु को किसी ने मार डाला, तो उसका जो शिष्य था, वह तो सब कुछ छोड़कर बस इसी में लग गया।

दो साल बाद उसका पीछा करते-करते एक जंगल में, एक गुफा में उसको पकड़ लिया। बस उसकी छाती में छुरा भोंकने को था ही कि उस आदमी ने उस समुराई के ऊपर थूक दिया। जैसे ही उसने थूका, उसने छुरा वापस रख लिया अपनी म्यान में और वापस गुफा के बाहर निकल आया।
उस आदमी ने कहा, क्यों भाई, क्या हो गया? दो साल से मेरे पीछे पड़े हो, बमुश्किल तुम मुझे खोज पाए, मैं जंगल-जंगल भागता रहा, आज तुम्हें मिल गया, आज क्या बात हो गयी कि छुरा निकाला हुआ वापस रख लिया?

उसने कहा कि मुझे क्रोध आ गया। तुमने थूक दिया, मुझे क्रोध आ गया। मेरे गुरु का उपदेश था, मारो भी अगर किसी को, तो मूर्छा में मत मारना। तो मारने में भी कोई पाप नहीं है। लेकिन तुमने जो थूक दिया, दो साल तक मैंने होश रखा-यह तो सिर्फ एक व्यवस्था की बात थी कि गुरु को मेरे तुमने मारा तो मैं तुम्हें मार रहा था, मेरा इसमें कुछ वैयक्तिक लेना-देना नहीं था-लेकिन तुमने थूक क्या दिया मुझ पर, मैं भूल ही गया गुरु को और मेरे मन में भाव उठा कि मार डालूं इस आदमी को, इसने मेरे ऊपर थूका! मैं बीच में आ गया, मूर्छा आ गयी। अहंकार बीच में आ गया, मूर्छा आ गयी। इसलिए अब जाता हूं। अब फिर जब यह मूर्छा हट जाएगी तब सोचूंगा। लेकिन मूर्छा में कुछ किया नहीं जा सकता।
बुद्ध ने कहा है, जो तुम मूर्छा में करो, वही पाप; जो जागरूकता में करों, वही पुण्य है। यह पाप और पुण्य की बड़ी नयी व्यवस्था थी। और इसमें व्यक्ति को परम स्वतंत्रता है। कोई दूसरा तय नहीं कर सकता कि क्या पाप है, क्या पुण्य है। तुमको ही तय करना है। बुद्ध ने व्यक्ति को परम गरिमा दी।

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और सातवीं बात, गौतम बुद्ध असहज के पक्षपाती नहीं, सहज के उपदेष्टा हैं।

गौतम बुद्ध कहते हैं, कठिन के ही कारण आकर्षित मत होओ। क्योंकि कठिन में अहंकार का लगाव है।

इसे तुमने देखा कभी? जितनी कठिन बात हो, लोग करने को उसमें उतने ही उत्सुक होते हैं। क्योंकि कठिन बात में अहंकार को रस आता है, मजा आता है-करके दिखा दूं। अब जैसे पूना की पहाड़ी पर कोई चढ़ जाए, तो इसमें कुछ मजा नहीं है, एवरेस्ट पर चढ़ जाऊं तो कुछ बात है। पूना की पहाड़ी पर चढ़कर कौन तुम्हारी फिकर करेगा, तुम वहां लगाए रहो झंडा, खड़े रहो चढ़कर! न अखबार खबर छापेंगे, न कोई वहां तुम्हारा चित्र लेने आएगा। तुम बड़े हैरान होओगे कि फिर यह हिलेरी पर और तेनसिंग पर इतना शोरगुल क्यों मचाया गया! आखिर इन ने भी कौन सी बड़ी बात की थी, जाकर हिमालय पर झंडा गाड़ दिया था, मैंने भी झंडा गाड़ दिया! लेकिन तुम्हारी पहाड़ी छोटी है। इस पर कोई भी चढ़ सकता है। जिस पहाड़ी पर कोई भी चढ़ सकता है, उसमें अहंकार को तृप्ति का उपाय नहीं है।
तो बुद्ध ने कहा कि अहंकार अक्सर ही कठिन में और दुर्गम में उत्सुक होता है। इसलिए कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जो सहज और सुगम है, जो हाथ के पास है, वह चूक जाता है और दूर के तारों पर हम चलते जाते हैं।
देखते हैं, आदमी चांद पर पहुंच गया। अभी अपने पर नहीं पहुंचा! तुमने कभी देखा, सोचा इस पर? चांद पर पहुंचना तकनीक की अदभुत विजय है। गणित की अदभुत विजय है। विज्ञान की अदभुत विजय है। जो आदमी चांद पर पहुँच गया, यह अभी छोटी-छोटी चीजें करने में सफल नहीं हो पाया है। अभी एक ऐसा फाउंटेनपेन भी नहीं बना पाया जो लीकता न हो। और चांद पर पहुँच गए! छोटी-सी बात भी, अभी सर्दी-जुखाम का इलाज नहीं खोज पाए, चांद पर पहुंच गए! अब ऐसे फाउंटेनपेन को बनाने में उत्सुक भी कौन है जो लीके न! छोटी-मोटी बात है, इसमें रखा क्या है!
फाउंटेनपेन सदा लीकेंगे। कोई आशा नहीं दिखती कि कभी ऐसे फाउंटेनपेन बनेंगे जो लीकें न। और सर्दी-जुखाम सदा रहेगी, इससे छुटकारे का उपाय नहीं है। क्योंकि चिकित्सक कैंसर में उत्सुक हैं, सर्दी-जुखाम में नहीं। बड़ी चीज अहंकार की चुनौती बनती है। आदमी अपने भीतर नहीं पहुंचा जो निकटतम है और चांद पर पहुंच गया। मंगल पर भी पहुंचेगा, किसी दिन और तारों पर भी पहुंचेगा, बस, अपने को छोड़कर और सब जगह पहुंचेगा।
तो बुद्ध असहजवादी नहीं हैं। बुद्ध कहते है, सहज पर ध्यान दो। जो सरल है, सुगम है, उसको जीओ। जो सुगम है, वही साधना है। इसको खयाल में लेना। तो बुद्ध ने जीवनचर्या को अत्यंत सुगम बनाने के लिए उपदेश दिया है। छोटे बच्चे की भांति सरल जीओ। साधु होने का अर्थ बहुत कठिन और जटिल हो जाना नहीं, कि सिर के बल खड़े हैं, कि खड़े हैं तो खड़े ही हैं, बैठते नहीं, कि भूखों मर रहे हैं, कि लंबे उपवास कर रहे हैं, कि कांटों की शय्या बिछाकर उस पर लेट गए हैं, कि धूप में खड़े हैं, कि शीत में खड़े हैं, कि नग्न खड़े हैं। बुद्ध ने इन सारी बातों पर कहा कि ये सब अहंकार की ही दौड़ हैं। जीवन तो सुगम है, सरल है। सत्य सुगम और सरल ही होगा। तुम नैसर्गिक बनो और अहंकार के आकर्षणों में मत उलझो।

-ओशो

रहस्यदर्शियों पर ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग 9
(प्रवचन नं. 82 से संकलित)

वाकई बाबा साहब आंबेडकर को छोड़कर अब तक के सभी भारतीय विद्वानों में बुद्धा को ओशो ने ही सही से समझा पाया है|

दुनिया में दो प्रकार के लोग होते है – पहले बुद्धिमान जिन्हे धर्म की जरूरत नहीं दुसरे धार्मिक जिन्हें बुद्धि इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं,आप कौन से वाले हैं…#आर_पी_विशाल

कोई मनुष्य नास्तिक है और वह किसी ईश्वर या धर्म के प्रति कतई आस्थावान नहीं है। इसका अर्थ यह लड़ाई उस व्यक्ति और ईश्वर के बीच की आपसी लड़ाई है यहां लोगों की भावनाएं क्यों आहत हो जाती है? यदि ईश्वर, अल्लाह, गॉड,भगवान आदि है और उनके बिना यदि एक पत्ता भी नहीं हिलता तो उक्त व्यक्ति को सजा ईश्वर स्वयं देगा। लोग क्यों आग बबूला हुए जाते हैं?

ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो उसकी रक्षा करना मनुष्य के बूते की बात नहीं हो सकती है। मनुष्य तभी अपने धर्म और ईश्वर की रक्षा करना चाहता है यदि धर्माचार्य जानते है कि ईश्वर जैसी कोई शक्ति संसार में विधमान नहीं है बल्कि एक नियंत्रणकारी विचार थोपकर ईश्वर के नाम पर डराकर, धमकाकर लोगों का एक समूह खड़ा कर उनपर राज करने भर के मकसद का नाम ही धर्म रक्षा है?

अन्यथा आप स्वयं सोचिये जिसने दुनिया बनाई, जिसकी मर्जी से कुछ नहीं होता, वह किसी नास्तिक के मन, मस्तिक में यह विचार कैसे भर सकता है कि तू ईश्वर के खिलाफ होगा? यदि वह पथ भ्रष्ट है तो ईश्वर उसको स्वयं सजा देता। यदि धर्म रक्षक गलत है तो ईश्वर उन्हें भी सजा देता मगर यहां ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यहां समूहों में बंटे सब के सब लोग ईश्वर के लठैत बनकर घूम रहे हैं।

लोगों की छोटी सी बात पर भावनाएं आहत हो जाती है जिसके चलते कुछ तो गला रेत देते हैं, कोई मुहँ पर चेप देते हैं। कुतर्क मत कीजिए कि मां, बाप का अपमान बच्चा कैसे बर्दाश्त करेगा? माँ-बाप यथार्थ हैं यहां विषय सर्वशक्तिमान का है। यदि कोई ईश्वर, भगवान, अल्लाह, खुदा, गॉड, देवता इत्यादि को नकार रहे हैं तो यह व्यक्ति और ईश्वर की आपसी लड़ाई है कौन शक्तिशाली है उनको स्वयं साबित करने दें? #आर_पी_विशाल

दार्शनिक, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, शिक्षाशास्त्री और लेखक बर्ट्रेंड आर्थर विलियम रसेल ने कहा है कि किसी भी किताब को पढ़ने के दो मकसद होते हैं। एक यह कि आपको उसमें आंनद आता है, दूसरा यह कि आप उसे पढ़कर डींगे मार सकते हो।

धार्मिक किताबों को सर्वोपरि और सम्पूर्ण मानने वालों को मैँ यही समझता हूं कि ये ढींगे मारने के लिए ही उसे पढ़ते हैं। दूसरा इन्हें अन्य धर्म को जानने, पढ़ने की भी बहुत इजाजत या रुचि नहीं होती है इसलिए सभी में तुलनात्मक नजरिया भी अख्तियार नहीं कर सकते।

सबसे बड़ी बात यह कि इन्हें यकीन है हमारी पुस्तक हमारे वाले ईश्वर ने लिखी है। मजेदार बात यह कि सबके ईश्वर अलग-अलग भाषा, लिपि समझते हैं। और अंत में वह ईश्वर भी किताबों में कैद है। इसे आप तभी समझ सकेंगे जब आप ढेर सारी किताबें पढ़ेंगे।

अब भारत ने एनसीईआरटी की किताब से डार्विन की थ्योरी को हटा दिया है।पाकिस्तान तो बहुत पहले डार्विन के सिद्धांत को अपने सिलेबस से बाहर कर चुका था,वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन की किताब ‘ऑरिजिन ऑफ स्पिशिज’ पहली ऐसी किताब थी जो पहली बार जीवों की उत्पत्ति पर विस्तृत रूप से लिखी हो।… #आर_पी_विशाल।

वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन की किताब ‘ऑरिजिन ऑफ स्पिशिज’ पहली ऐसी किताब थी जो पहली बार जीवों की उत्पत्ति पर विस्तृत रूप से लिखी हो। डार्विन की इस किताब के कारण कई धार्मिक मान्यताओं को झटका भी लगा। पाकिस्तान और भारत जैसे देशों में सदा डार्विन खटकते रहा।

पाकिस्तान तो बहुत पहले डार्विन के सिद्धांत को अपने सिलेबस से बाहर कर चुका था अब भारत ने भी वही रास्ता पकड़ते हुए एनसीईआरटी की किताब से डार्विन की थ्योरी को हटा दिया गया है। यह सभी स्वघोषित वैज्ञानिक डार्विन से पहले खुद को वैज्ञानिक मानते हैं और डार्विन को आज भी गलत साबित करते हैं।

मैं इसबात पर विश्वास करता हूँ कि विज्ञान में सम्भावनाएं होती है और एक नियम को दूसरा चुनौती दे सकता है। डार्विन का सिद्धांत भी सम्भव हो कि अंतिम न हो। मगर भारत-पाकिस्तान जैसे देशों में डार्विन, आइंस्टीन, न्यूटन इत्यादि को चुनौती वैज्ञानिकों से नही, धार्मिक कट्टर लोगों और धार्मिक किताबों से दी जाती है।

इससे अनुमान लगाइए कि हम कहाँ है और विश्व में हमारा स्थान कहाँ है? वैसे बात भी सही है कि हम बंदरों से इंसान नहीं बने होंगे क्योंकि अभीतक हम इंसान बने ही कहाँ है? हमारे देश में जब कुछ लोग यह मान सकते हैं कि 2014 से ही सबकुछ अस्तित्व में आया है तो सभी लोगों को यह मानने में क्या हर्ज कि हम एकदिन अचानक मुहँ, भुजा, जंघा और पैरों से प्रकट हो गए? #आर_पी_विशाल

बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने सन 1936 में श्रमिक वर्ग के अधिकार और उत्थान हेतु ‘इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी’ की स्थापना की थी इससे यह अंदाजा लगाने का सहयोग मिलेगा कि मजदूर, गरीब, शोषित, पीड़ित हर हाशिये के व्यक्ति के प्रति बाबा साहेब कितने गम्भीर थे।… #रिपोस्ट#आर_पी_विशाल

मजदूरों की आवाज विश्व के पटल पर सर्व प्रथम उठी थी। भारत के संदर्भ में हमें दूसरे दृष्टिकोण तथा बाबा साहेब की भूमिका से ही इसे समझना होगा। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने सन 1936 में श्रमिक वर्ग के अधिकार और उत्थान हेतु ‘इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी’ की स्थापना की थी इससे यह अंदाजा लगाने का सहयोग मिलेगा कि मजदूर, गरीब, शोषित, पीड़ित हर हाशिये के व्यक्ति के प्रति बाबा साहेब कितने गम्भीर थे। आज मजदूर दिवस या मई दिवस पूरे विश्व में मनाया जाता है और यह उन श्रमिक वर्गों का उत्सव है जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय श्रम आंदोलनों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है। भारत में श्रमिकों के प्रति डॉ अंबेडकर का योगदान बहुत बड़ा रहा है, लेकिन लगभग हर कोई एक श्रमिक नेता के रूप में डॉ अंबेडकर की भूमिका को शायद ही जानता होगा। जबकि देश मे कई बड़े नामी गिरामी किसान नेता या मजदूर पृष्टभूमि से आये नेता भी रहे हैं।

एक मई 1886 से मनाए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की प्रमुख मांग का आधार श्रमिको के लिए प्रति श्रम दिन 8 घंटे का मानने का 1866 के वाल्टीमेर (अमेरिका) के मजदूरो के कंवेंशन मे पारित प्रस्ताव था। भारत मे 1923 मे पहली बार मद्रास मे मई दिवस मनाया गया तथा दूसरे विश्वयुद्ध की घोषणा के बाद 2 अक्टूबर 1939 को बम्बई मे हुई युद्ध विरोधी हडताल मे दस हजार से ज्यादा मजदूरो ने हिस्सा लिया था। हालांकि श्रम विभाग की स्थापना नवंबर 1937 में हुई थी और डॉ अंबेडकर ने जुलाई 1942 में श्रम विभाग का कार्यभार संभाला था। सिंचाई और बिजली के विकास के लिए नीति निर्माण और योजना प्रमुख चिंता थी।

मैं यहां केवल डॉ अंबेडकर की भूमिका और उनकी प्रासंगिकता, प्रयत्न तथा उससे हासिल उपलब्धि पर बात करूंगा। 1942 से उनके मार्गदर्शन में श्रम विभाग था, जिसमें बिजली प्रणाली विकास, हाइडल पावर स्टेशन साइटों, हाइड्रो-इलेक्ट्रिक सर्वेक्षणों, बिजली उत्पादन और थर्मल पावर स्टेशन की समस्याओं का विश्लेषण करने के लिए “केंद्रीय तकनीकी पावर बोर्ड” (CTPB) स्थापित करने का निर्णय लिया था। 1886 वाल्टिमेर के कन्वेंशन की भांति बाबा साहेब है फैक्ट्रियों में मजदूरों के 12 से 14 घंटे काम करने के नियम को बदल कर 8 घंटे किया गया था साथ बाबा साहेब ने ही महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व लाभ जैसे कानून बनाने की पहल की।

बाबा साहेब ने 1946 में श्रम सदस्य की हैसियत से केंन्द्रीय असेम्बली में न्यूनतम मजदूरी निर्धारण सम्बन्धी एक बिल पेश किया जो 1948 में जाकर देश का ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ बना। बाबा साहेब ने ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट में सशोधन करके सभी यूनियनों को मान्यता देने की आवश्यकता पर जोर दिया। 1946 में उन्होंने लेबर ब्यूरो की स्थापना भी की। बाबा साहेब ने ही मजदूरों के हड़ताल करने के अधिकार को स्वतंत्रता का अधिकार माना और कहा कि मजदूरों को हड़ताल का अधिकार न देने का अर्थ है मजदूरों से उनकी इच्छा के विरुद्ध काम लेना और उन्हें गुलाम बना देना।

1938 में जब बम्बई प्रांत की सरकार मजदूरों के हड़ताल के अधिकार के विरूद्ध ट्रेड डिस्प्यूट बिल पास करना चाह रही थी तब बाबा साहेब ने खुलकर इसका विरोध किया। बाबा साहब ट्रेड यूनियन के प्रबल समर्थक थे। वह भारत में ट्रेड यूनियन को बेहद जरूरी मानते थे। वह यह भी मानते थे कि भारत में ट्रेड यूनियन अपना मुख्य उद्देश्य खो चुका है। उनके अनुसार जब तक ट्रेड यूनियन सरकार पर कब्जा करने को अपना लक्ष्य नहीं बनाती तब तक वह मज़दूरों का भला कर पाने में अक्षम रहेंगी और नेताओं की झगड़ेबाजी का अड्डा बनी रहेंगी। बाबा साहेब का मानना था कि भारत में मजदूरों के सबसे बडा दुश्मन पूंजीवाद है।

27 नवंबर, 1942 को नई दिल्ली में भारतीय श्रम सम्मेलन के 7 वें सत्र में उन्होंने 8 घंटे के कार्य दिवस को भारत में लाया, जो पहले 14 घंटे होता था। महिला श्रमिकों के लिए कई कानून बनाए, जैसे ‘खान मातृत्व लाभ अधिनियम’, ‘महिला श्रम कल्याण कोष’, ‘महिला और बाल श्रम संरक्षण अधिनियम’। Labor महिला श्रम के लिए मातृत्व लाभ ’, और ‘कोयला खदानों में भूमिगत काम पर महिलाओं के रोजगार पर प्रतिबंध’। डॉ अम्बेडकर ने महिला श्रमिकों के लिए रोजगार, बेहतर स्वास्थ्य देखभाल और मातृत्व अवकाश प्रावधानों के प्रदर्शन के लिए आवश्यक शिक्षा और महत्वपूर्ण कौशल प्रदान करके श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम शुरू किए थे।

यदि आज आप अपनी कंपनी को स्वास्थ्य बीमा प्रदान करने से खुश हैं, तो इसका श्रेय डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर को जाता है। कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) काम के दौरान लगी चोटों, काम करने वालों के मुआवजे और विभिन्न सुविधाओं के प्रावधान के कारण चिकित्सा देखभाल, चिकित्सा अवकाश, शारीरिक विकलांगता के साथ श्रमिकों की मदद करता है। डॉ बाबासाहेब अंबेडकर ने इसे लागू किया और इसे श्रमिकों के लाभ के लिए लाया। कर्मचारियों की भलाई के लिए बीमा अधिनियम लाने वाला पूर्वी एशियाई देशों में भारत पहला देश था। ‘महंगाई भत्ता’ (डीए) में हर वृद्धि जो आपके चेहरे पर मुस्कान लाती है, आपके लिए डॉ अंबेडकर को धन्यवाद देने का एक अवसर होना चाहिए। यदि आपके पास ‘लीव बेनिफिट’ या ‘वेतनमान में संशोधन’ आपको खुश करता है, तो डॉ अंबेडकर को जरूर याद करें।

कोयला और मीका माइंस प्रोविडेंट फंड ’के प्रति डॉ अंबेडकर का योगदान भी महत्वपूर्ण था। उस समय, कोयला उद्योग ने हमारे देश की अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर ने 31 जनवरी, 1944 को श्रमिकों के लाभ के लिए कोल माइंस सेफ्टी (स्टोइंग) संशोधन विधेयक लागू किया। 8 अप्रैल 1946 को, उन्होंने ‘मीका माइंस लेबर वेलफेयर फंड’ लाया, जिसने श्रमिकों को आवास, पानी की आपूर्ति में मदद की। शिक्षा, मनोरंजन, सहकारी व्यवस्था। इसके अलावा, डॉ बाबासाहेब अंबेडकर ने बीपी आगरकर के मार्गदर्शन में ‘श्रम कल्याण कोष’ से उत्पन्न महत्वपूर्ण मामलों पर सलाह देने के लिए एक सलाहकार समिति का गठन किया। बाद में उन्होंने जनवरी 1944 को इसे प्रख्यापित कर दिया।

डॉ अम्बेडकर ने श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों की सुरक्षा के लिए 1942 में ‘त्रिपक्षीय श्रम परिषद’ की स्थापना की, मजदूरों को रोजगार देने और मजदूर संघों की अनिवार्य मान्यता शुरू करके और श्रमिक आंदोलन को मजबूत करने के लिए श्रमिकों और नियोक्ताओं को समान अवसर दिया। श्रमिक संगठन आज भी, ट्रिब्यूनल सिस्टम – श्रमिकों, नियोक्ताओं और सरकारी प्रतिनिधियों – डॉ अम्बेडकर द्वारा औद्योगिक विवादों को हल करने के लिए सुझाव दिया गया है और भारत में औद्योगिक समस्याओं को हल करने के लिए अशांति व्यापक रूप से प्रचलित पद्धति है। (हालांकि, यह शर्म की बात है कि वर्तमान सरकारें इसे प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर रही हैं)।

डॉ अंबेडकर ने बिजली क्षेत्र में ‘ग्रिड सिस्टम’ के महत्व और आवश्यकता पर जोर दिया, जो आज भी सफलतापूर्वक काम कर रहा है। अगर आज बिजली इंजीनियर प्रशिक्षण के लिए विदेश जा रहे हैं, तो इसका श्रेय डॉ अंबेडकर को जाता है, जिन्होंने श्रम विभाग के एक नेता के रूप में विदेशों में सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरों को प्रशिक्षित करने के लिए नीति तैयार की। यह शर्म की बात है कि डॉ अंबेडकर को भारत की जल नीति और इलेक्ट्रिक पावर प्लानिंग में भी उनकी भूमिका के लिए कोई भी श्रेय नहीं देता है। श्रम को ‘समवर्ती सूची’ में रखा गया था, ‘मुख्य और श्रम आयुक्त’ नियुक्त किए गए थे, ‘श्रम जांच समिति’ का गठन किया गया था – इन सभी का श्रेय डॉ। अंबेडकर को जाता है।

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम ’डॉ अंबेडकर का योगदान था, इसलिए। मातृत्व लाभ विधेयक’ महिला श्रमिकों को सशक्त बनाता था। यदि आज भारत में एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज ’हैं, तो यह डॉ अंबेडकर की दृष्टि के कारण है (फिर से यह शर्म की बात है कि वर्तमान सरकारें उन्हें ठीक से नहीं चला रही हैं)। यदि श्रमिक अपने अधिकारों के लिए हड़ताल पर जा सकते हैं, तो यह बाबासाहेब अम्बेडकर की वजह से है – उन्होंने श्रमिकों द्वारा ‘राइट टू स्ट्राइक’ को स्पष्ट रूप से मान्यता दी थी। 8 नवंबर, 1943 को डॉ अंबेडकर ने ट्रेड यूनियनों की अनिवार्य मान्यता के लिए भारतीय व्यापार संघ (संशोधन) विधेयक ’लाया। डॉ अंबेडकर ने कहा कि उदास वर्गों को देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए।

भारत में श्रम विभाग नवंबर 1937 में स्थापित किया गया था और डॉ़ भीमराव आंबेडकर ने जुलाई, 1942 में श्रम मंत्रालय का कार्यभार संभाला था। उस वक्त सिंचाई और विद्युत विकास के लिए नीति निर्माण और योजनाएं बनाना पहला काम था। श्रम विभाग ने डॉ. आंबेडकर के मार्गदर्शन में विद्युत प्रणाली के विकास, जल विद्युत केन्द्र स्थलों, पनविद्युत सर्वेक्षण, विद्युत उत्पादन की समस्याओं का विश्लेषण और थर्मल पावर स्टेशनों की समस्याओं की जांच-पड़ताल के लिए केंद्रीय तकनीकी विद्युत बोर्ड (सीटीपीबी) स्थापित करने का फैसला किया।

चाहे भारतीय रिजर्व बैंक के संस्थापक के दिशानिर्देश हों या अर्थव्यवस्था के किसी अन्य पहलू को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत, भारत को जो भी सबसे अच्छा मिल सकता था, डॉ. आंबेडकर ने दिया। यह डॉ. आंबेडकर ही थे, जिन्होंने भारत में 14 घंटे से घटाकर 8 घंटे के कार्य दिवस की शुरुआत की। उन्होंने यह कार्य नई दिल्ली में भारतीय श्रम सम्मेलन के 7वें सत्र में 27 नवंबर, 1942 को किया था। डॉ़ बाबासाहेब आंबेडकर ने भारत में महिला श्रमिकों के लिए कई कानूनों का निर्माण किया, जैसे कि ‘खदान मातृत्व लाभ अधिनियम’, ‘महिला श्रमिक कल्याण निधि’, ‘महिला एवं बाल श्रमिक संरक्षण अधिनियम’, ‘महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व लाभ’ और ‘कोयला खदानों में भूमिगत काम पर महिलाओं को रोजगार देने पर प्रतिबंध’ की बहाली।

कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) श्रमिकों को चिकित्सा देखभाल में, चिकित्सा छुट्टी, काम के दौरान घायल होने की वजह से शारीरिक विकलांगता में, कामगारों को क्षतिपूर्ति और विभिन्न सुविधाओं के प्रावधान के लिए मददगार होता है। पूर्वी एशियाई देशों में भारत ऐसा पहला राष्ट्र था, जिसने कर्मचारियों की भलाई के लिए बीमा अधिनियम बनाया था। ‘महंगाई भत्ता’ (डीए), ‘अवकाश लाभ’, ‘वेतनमान का पुनरीक्षण’ जैसे प्रावधान डॉ. आंबेडकर के कारण ही हैं। ‘कोयला और माइका (अभ्रक) खान भविष्य निधि’ की दिशा में भी डॉ़ आंबेडकर का महत्वपूर्ण योगदान था। उस काल में कोयला उद्योग हमारे देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

31 जनवरी, 1944 को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने श्रमिकों के लाभ के लिए कोयला खान सुरक्षा संशोधन विधेयक अधिनियम बनाया। 8 अप्रैल, 1946 को उन्होंने अभ्रक खान श्रमिक कल्याण कोष का गठन किया, जो श्रमिकों के लिए आवास, जलापूर्ति, शिक्षा, मनोरंजन, सहकारी व्यवस्थाओं में मददगार रहा। इसके अलावा डॉ़ आंबेडकर ने बी़ पी़ अगरकर के मार्गदर्शन में श्रमिक कल्याण कोष से उत्पन्न होने वाले महत्वपूर्ण मामलों पर सलाह देने के लिए एक सलाहकार समिति का गठन किया। बाद में जनवरी, 1944 को उन्होंने इसे विधिवत तौर पर प्रस्थापित कर दिया।

वायसराय की परिषद के श्रम सदस्य के तौर पर डॉ़ आंबेडकर ने श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ाने, उन्हें शिक्षा और कार्य में बेहतर प्रदर्शन, आवश्यक कौशल उपलब्ध कराने, उनके स्वास्थ्य की देखभाल और महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व प्रावधान उपलब्ध कराने के लिए कार्यक्रम शुरू किए। 1942 में डॉ़ आंबेडकर ने श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों की रक्षा की खातिर, श्रम नीति के निर्धारण में भागीदारी के लिए श्रमिकों और नियोक्ताओं को समान अवसर देने और ट्रेड यूनियनों की तथा श्रमिक संगठनों को अनिवार्य मान्यता शुरू करके श्रमिक आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए त्रिपक्षीय श्रम परिषद की स्थापना की।

डॉ़ आंबेडकर ने ऊर्जा क्षेत्र में ग्रिड प्रणाली के महत्व और आवश्यकता पर बल दिया, जो आज भी सफलतापूर्वक काम कर रही है। यदि आज विद्युत इंजीनियर प्रशिक्षण के लिए विदेश जाते हैं, तो इसका श्रेय भी डॉ़ आंबेडकर को ही जाता है, जिन्होंने श्रम विभाग के प्रमुख के तौर पर सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरों को विदेशों में प्रशिक्षित करने के लिए नीति तैयार की थी। श्रम को संविधान की समवर्ती सूची में रखने, मुख्य और श्रम आयुक्तों को नियुक्त करने, श्रम जांच समिति का गठन करने आदि का श्रेय भी डॉ़ आंबेडकर को ही जाता है। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम भी डॉ़ आंबेडकर के योगदान की वजह से बना था, और यही स्थिति महिला श्रमिकों को सशक्त बनाने वाले मातृत्व लाभ विधेयक की है।

अगर आज भारत में रोजगार कार्यालय दिखाई देते हैं, तो ऐसा डॉ़ आंबेडकर की दूरदृष्टि के कारण है। यदि श्रमिक अपने अधिकारों के लिए हड़ताल पर जा सकते हैं, तो ऐसा बाबासाहेब आंबेडकर की वजह से है। उन्होंने श्रमिकों के हड़ताल करने के अधिकार को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान की थी। 8 नवंबर, 1943 को डॉ़ आंबेडकर ने ट्रेड यूनियनों की अनिवार्य मान्यता के लिए इंडियन ट्रेड यूनियन (संशोधन) विधेयक पेश किया। डॉ़ आंबेडकर का बराबर मानना रहा कि दलित वगोंर् को इस देश के आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि अगर भारत में मजदूरों के पास अधिकार हैं, तो ऐसा डॉ़ आंबेडकर की मेहनत और समर्पित श्रमिकों की ओर से उसके लिए लड़ी गई लड़ाई की वजह से है।

भारत के श्रम मंत्री के नाते डॉ़ बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा दिया गया योगदान। फैक्टरी में काम के घंटों में कटौती (8 घंटों की ड्यूटी)

(आज भारत में प्रतिदिन काम की अवधि लगभग 8 घंटे होती है। कितने भारतीयों को यह बात पता है कि डॉ़ बाबासाहेब आंबेडकर भारत में मजदूरों के उद्धारकर्ता थे। उन्होंने भारत में काम के 8 घंटे तय करवाए। कामकाज का समय 14 से घटाकर 8 घंटे किया जाना भारत के श्रमिकों के लिए प्रकाशपुंज जैसा था। उन्होंने यह प्रस्ताव 27 नवंबर, 1942 को नई दल्लिी में भारतीय श्रम सम्मेलन के 7वें सत्र में प्रस्तुत किया।)

बाबासाहेब आंबेडकर ने भारत में महिला मजदूरों के लिए कई कानूनों का नर्मिाण किया- खान मातृत्व लाभ अधिनियम, महिला श्रमिक कल्याण कोष, महिला एवं बाल श्रम संरक्षण अधिनियम, महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व लाभ कोयला खदानों में भूमिगत काम पर महिलाओं के रोजगार पर प्रतिबंध की बहाली इत्यादि। भारत का जो मजदूर हैं, वह मजदूर नहीं मजबूर हैं। मजदूर पूरी दुनियां में हैं, इसलिये सोचने वाली बात ये नहीं हैं कि भारत में भी मजदूर हैं बल्कि सोचने वाली बात यह हैं कि भारत में जो मजदूर हैं वह #एकवर्णीय हैं। जिसे मजदूर बनाने से पहले मजबूर बनाया गया। इन सारी बातो के जड़ों में जब आप जायेंगे तो आपको पता चलेगा कि इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि #वर्णवाद ही हैं।

यह सुरक्षित रूप से कहा जा सकता है कि यदि भारत में श्रमिकों के कुछेक अधिकार जो मिल सके हैं, तो यह डॉ अंबेडकर की कड़ी मेहनत और हम सभी के लिए उनकी लड़ाई के कारण है। हम सभी अधिकारों और सुविधाओं के लिए डॉ अंबेडकर के ऋणी हैं, इसलिए डॉ बाबासाहेब अंबेडकर के योगदान को पहचानने के बिना भारत में मजदूर दिवस मनाना हमारे देश के लिए अनुचित है। बाबा साहेब अम्बेडकर के श्रमिक वर्ग के उत्थान से जुड़े अनेक पहलूओं को भारतीय इतिहासकारों और मजदूर वर्ग के समर्थकों ने नज़रंदाज़ किया है। जबकि डॉ अम्बेडकर के कई प्रयास मजदूर आंदोलन और श्रमिक वर्ग के उत्थान हेतु प्रेरणा एवं मिसाल हैं। कई कई कारणों से यह मजदूर दिवस हमें भारत के अब तक के सबसे अच्छे श्रम मंत्री को याद करने और उन्हें सलाम करने की अनुमति देता है। #रिपोस्ट#आर_पी_विशाल।।

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बाबा साहब डॉ बी आर अंबेडकर की 132 वीं जयंती के अवसर पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव शुक्रवार को हुसैनसागर के तट पर उनकी 125 फीट ऊंची प्रतिमा का अनावरण करेंगे।भारतीय संविधान के वास्तुकार’ के लिए निर्मित देश की अब तक की सबसे ऊंची प्रतिमा है…Hindustan times

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव शुक्रवार को हुसैनसागर के तट पर डॉ बी आर अंबेडकर की 132 वीं जयंती के अवसर पर उनकी 125 फीट ऊंची प्रतिमा का अनावरण करेंगे।

अम्बेडकर की प्रतिष्ठित संरचना, जो राज्य के लिए एक और मील का पत्थर स्थापित करेगी, का दावा है कि यह ‘भारतीय संविधान के वास्तुकार’ के लिए निर्मित देश की अब तक की सबसे ऊंची प्रतिमा है – जिसकी कुल ऊंचाई 175-फीट है, जिसमें 50-फीट भारत की संसद के भवन जैसा दिखने वाला उच्च गोलाकार आधार भी शामिल है।

मुख्यमंत्री कार्यालय के एक अधिकारी ने कहा कि मूर्ति का वजन 474 टन है, जबकि 360 टन स्टेनलेस स्टील का उपयोग मूर्ति की आर्मेचर संरचना के निर्माण के लिए किया गया था, मूर्ति की ढलाई के लिए 114 टन कांस्य का उपयोग किया गया था।

दिलचस्प बात यह है कि मूर्ति को उत्तर प्रदेश के नोएडा में प्रसिद्ध मूर्तिकारों राम वनजी सुतार (98) और उनके बेटे अनिल राम सुतार (65) द्वारा डिजाइन किया गया था, जिन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा सहित कई स्मारकीय मूर्तियां भी डिजाइन की थीं। गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल की स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (597 फीट)।

“परियोजना की कुल लागत 146.50 करोड़ रुपये आंकी गई थी और निर्माण 3 जून, 2021 को संपन्न समझौते के अनुसार केपीसी प्रोजेक्ट्स लिमिटेड द्वारा किया गया था।

“जिस आधारशिला पर प्रतिमा स्थापित है, उसमें 26,258 वर्ग फुट के कुल निर्मित क्षेत्र के साथ तीन मंजिलें हैं। इस संरचना में एक संग्रहालय होगा जिसमें अम्बेडकर के जीवन इतिहास को दर्शाने वाले कई लेख और चित्र हैं और प्रस्तुत करने के लिए 100 सीटर सभागार है। अम्बेडकर के जीवन के ऑडियो-विजुअल। एक पुस्तकालय भी नियत समय में बनाया जाएगा, ”अधिकारी ने कहा।

लगभग 450 कारों के लिए पार्किंग सुविधा प्रदान करने के अलावा, 11 एकड़ में फैले पूरे परिसर को 2.93 एकड़ में लैंडस्केप और हरियाली से सजाया गया है। अम्बेडकर के चरणों तक पहुँचने के लिए चबूतरे के शीर्ष तक पहुँचने वाले आगंतुकों के लिए दो लिफ्ट हैं।

“संयोग से, प्रतिमा नव-निर्मित राज्य सचिवालय से सटी हुई है, जिसका नाम भी अंबेडकर के नाम पर रखा गया है। सचिवालय परिसर का उद्घाटन 30 अप्रैल को होगा।

Hindi translation of Hindustan times news by google translator, actual source of news is :

https://www.hindustantimes.com/india-news/telangana-cm-unveils-125-ft-tall-statue-of-dr-b-r-ambedkar-on-his-132nd-birth-anniversary-with-360-tonnes-of-stainless-steel-and-114-tonnes-of-bronze-101681413804894.html

शुक्रवार, 14 अप्रैल, 2023 को डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की 132वीं जयंती के अवसर पर अमेरिका के न्यू जर्सी शहर के मेयर कार्यालय ने हर साल आम्बेडकर जयंती को Equality Day के तौर मनाने की विधिवत घोषणा की है। । मेयर साहब स्टीवन एम. फुलोप व उन के सभी साथियों व अमेरिका का हार्दिक अभिनन्दन

आज अमेरिका में 20 से ज़्यादा शहरों में आम्बेडकर जयंती मनाई जाएगी। प्रमुख कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र में होगा जिसे यूएन के सेक्रेटरी जनरल एंटोनियो गुटेरेश भी हिस्सा लेंगे।

OFFICE OF THE MAYOR CITY OF JERSEY CITY
NEW JERSEY
STEVEN M. FULOP
CITY
MAYOR
CORFORATE

Proclamation

Jersey City Immigrant Affairs Commission
Equality Day
WHEREAS, the City of Jersey City is to recognize the Immigrant Affairs Commission to declare April 14th, 2022 as Equality Day in observance of Dr. Ambedkar’s 131st Birthday, And
WHEREAS Dr. B.R. Ambedkar’s slogan, “Educate, Agitate, organize” mobilized millions around the world to organize against discrimination based on religion, gender, race, class, and caste, and to promote universal equality and human rights;
WHEREAS Dr. B.R. Ambedkar overcame systemic discrimination and went on to succeed against all the odds to champion the rights of the most marginalized people in the Indian society;
WHEREAS Dr. B.R. Ambedkar advocated for the inclusion of women’s rights in the Constitution of India and India’s political system, writing “I measure the progress of a community by the degree of progress which women have achieved”;
WHEREAS Dr. B.R. Ambedkar led one of the largest civil rights movements in history, working to establish basic rights for hundreds of millions of Dalits, and succeeded in including Article 17 in the Constitution of India which abolishes untouchability and its practice in any form;
WHEREAS the Constitution of India enshrined fundamental human rights for all, preventing discrimination against any citizen on grounds only of religion, race, caste, sex, or place of birth;
WHEREAS s the Constitution of India was the first legal document in Indian history to have Dalits at the helm of its creation, and influenced the inclusion of minority rights in postcolonial constitutions around the world;
WHEREAS Dr. B.R. Ambedkar’s contributions to economics, political science, civil rights, religious harmony, and jurisprudence have had a profound impact around the world, promoting democratic values, unfettered equality, and justice for peoples of all castes, races, genders, religions, and backgrounds.
NOW, THEREFORE, BE IT RESOLVED THAT I, STEVEN M. FULOP, MAYOR of the City of Jersey City, hereby declare Thursday, April 14th, 2022, as Equality Day in observance of Dr. B.R. Ambedkar’s 131st Birthday.
OFFICE
OF
THE
IN WITNESS WHEREOF, I have set my hand and the Seal of the Office of the Mayor on this 14st day of April in the Year of O Lord, Two Thousand-Twenty Two.
STEVEN M. FULOP
MAYOR

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जर्सी शहर के मेयर शहर का कार्यालय
न्यू जर्सी
स्टीवन एम. फुलोप
शहर
महापौर
कॉर्पोरेट

घोषणा

जर्सी सिटी अप्रवासी मामले आयोग
समानता दिवस
जबकि, जर्सी सिटी शहर को अप्रवासी मामलों के आयोग द्वारा 14 अप्रैल, 2022 को डॉ. अम्बेडकर के 131वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में समानता दिवस के रूप में घोषित करने के लिए मान्यता देनी है, और
जबकि डॉ. बी.आर. अंबेडकर के नारे, “शिक्षित, आंदोलन, संगठित” ने धर्म, लिंग, नस्ल, वर्ग और जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ संगठित होने और सार्वभौमिक समानता और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने के लिए दुनिया भर में लाखों लोगों को संगठित किया;
जबकि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने प्रणालीगत भेदभाव पर काबू पाया और भारतीय समाज में सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले लोगों के अधिकारों के लिए सभी बाधाओं के खिलाफ सफल रहे;
जबकि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने भारत के संविधान और भारत की राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं के अधिकारों को शामिल करने की वकालत करते हुए लिखा, “मैं एक समुदाय की प्रगति को महिलाओं द्वारा हासिल की गई प्रगति की डिग्री से मापता हूं”;
जबकि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने इतिहास के सबसे बड़े नागरिक अधिकार आंदोलनों में से एक का नेतृत्व किया, करोड़ों दलितों के लिए बुनियादी अधिकार स्थापित करने के लिए काम किया, और भारत के संविधान में अनुच्छेद 17 को शामिल करने में सफल रहे जो अस्पृश्यता और किसी भी रूप में इसकी प्रथा को समाप्त करता है;
जबकि भारत के संविधान ने सभी के लिए मौलिक मानवाधिकारों को स्थापित किया है, किसी भी नागरिक के खिलाफ केवल धर्म, जाति, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकना;
जबकि भारत का संविधान भारतीय इतिहास का पहला कानूनी दस्तावेज था, जिसके निर्माण में दलितों का हाथ था, और इसने दुनिया भर के उत्तर-औपनिवेशिक संविधानों में अल्पसंख्यक अधिकारों को शामिल करने को प्रभावित किया;
जबकि डॉ. बी.आर. अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, नागरिक अधिकार, धार्मिक सद्भाव और न्यायशास्त्र में अंबेडकर के योगदान का दुनिया भर में गहरा प्रभाव पड़ा है, लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने, सभी जातियों, जातियों, लिंगों, धर्मों और पृष्ठभूमि के लोगों के लिए अबाधित समानता और न्याय।
अब, इसलिए, यह संकल्प लिया जाए कि मैं, स्टीवन एम. फुलोप, जर्सी शहर के मेयर, इसके द्वारा गुरुवार, 14 अप्रैल, 2022 को डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की 131वीं जयंती।
कार्यालय
का

जिसके साक्ष्य में, हे प्रभु, दो हजार-बाईस वर्ष के इस 14 अप्रैल के दिन मैंने अपना हाथ और महापौर के कार्यालय की मुहर लगा दी है।
स्टीवन एम. फुलोप
महापौर

अमेरिका के जर्सी शहर के सिटी कौंसिल हॉल में अमेरिकी अधिकारियों और भारतीय दूतावास के प्रतिनिधि की उपस्थिति में आज (14-apr-2023) नीला झंडा, जिसके मध्य में अशोक चक्र है और अमेरिकी झंडा साथ साथ लहराया गया। बाबा साहब का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो चुका है। अब वे विश्व रत्न हैं।…Dilip C. Mandal

जब भारत में गहरी रात थी और आप सब सो रहे थे तो अमेरिका में एक इतिहास रचा जा रहा था, जिसका साक्षी बनने का मौक़ा मुझे भी मिला।

अमेरिका के जर्सी शहर के सिटी कौंसिल हॉल में अमेरिकी अधिकारियों और भारतीय दूतावास के प्रतिनिधि की उपस्थिति में आज नीला झंडा, जिसके मध्य में अशोक चक्र है और अमेरिकी झंडा साथ साथ लहराया गया। जर्सी सिटी से हुई शुरुआत का असर दूसरे शहरों में भी हो रहा है।

जय भीम के नारे लगे और दोनों देश के राष्ट्र गान गाए गए। उसके पीछे वर्षों का प्रयास है, जिसका नेतृत्व वकील स्वाति सावंत ने किया, जो जर्सी सिटी इमिग्रेशन अफ़ेयर्स बोर्ड की मेंबर भी हैं।

जर्सी सिटी बोर्ड ने हर साल आम्बेडकर जयंती को Equality Day के तौर मनाने की विधिवत घोषणा की है।

आज अमेरिका में 20 से ज़्यादा शहरों में आम्बेडकर जयंती मनाई जाएगी। प्रमुख कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र में होगा जिसे यूएन के सेक्रेटरी जनरल एंटोनियो गुटेरेश भी हिस्सा लेंगे।

बाबा साहब का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो चुका है। अब वे विश्व रत्न हैं।